पहला दिन
सबसे चौड़ी सड़क सबसे ज़्यादा शांत है
दूर-दूर तक फैला है ख़ौफ़ का कर्कश राग
यूँ तो जीने की सारी इच्छाएँ
सारी आशाएँ सूख गई हैं
पर जीने की तलब अभी बाक़ी है
जो किसी को सड़क पर चमकती मरीचिका तक
खींच ले जाती है एक बूँद की प्यास में
तो किसी से सुखवा देती है पूरा का पूरा तालाब
एक निवाले की आस में।
दूसरा दिन
जीवन के सारे शॉर्टकट धरे रह गए
हर चेहरे झलक रहा है डर
शांति के ख़ौफ़ज़दा राग में
बिंजो की तान छेड़ती हुई साइकिल
ढोए जा रही है अपने सवार और उसकी सवारी को
अपनी हताशा को छुपाने और महामारी से बचने के लिए
लोगों के नक़ाब नाकाफ़ी हैं
सड़क के दोनों ओर गिरी फ़सलों की तरह
गिरे कंधे बता रहे हैं कि सारे टोटके बेकार गए।
तीसरा दिन
कई दिनों तक हाथ-पैर धोकर
बैठने से ऊब चुके लोग
व्यस्त होने का ढोंग करने लगे हैं
अपने रोज़मर्रा के कामों से
दूर देश में फँसे प्रियतम की ख़बर में बेकल नवविवाहिता
इन दिनों अपने में ही गुमशुदा है
टकटकी लगाए घूरती रहती है फ़ोन को
एक-एक क्षण की देरी
उसे डुबो ले जाती हैं शंकाओं की अतल गहराइयों में।
चौथा दिन
समता भरे देश में
महामारी ले आई है अपने साथ विषमताएँ
कोई घर में पकवानों के साथ
देख रहा किसी दूसरी दुनिया का चलचित्र
कोई तिल-तिल सौंपकर
माँग रहा है प्राण-दान
जीवन पेड़ पर लटकते आम की तरह है
जो सहता रहता है
आँधी के थपेड़े
चिड़िया की टोंट
और मनुष्यों का उन्मत्त ढेला।
पाँचवाँ दिन
दूर-दूर तक ख़ाली पड़े खेतों में
सबसे बच-बचा कर छुप जाना चाहता है कोई
पकड़ लिए जाने पर नकली हँसी हँस देता है कोई
कोई रोज़ चलता है बहुत दूर निकल जाने की ज़िद में
कमबख़्त नादान है
ये गाँव की पगडंडियाँ हैं
कोई रेल की पटरियाँ नहीं
जो पहुँचा दें एक ही झटके में
दूर किसी मायानगरी में।
छठवाँ दिन
नदी की तरह बह रहा है जनसैलाब
कोई रोक-टोक नही
पछुआ हवाओं में उड़ रही ख़बरें बता रही हैं
जीवन कहीं कहीं दूषित हो गया है
रात में बरसा था पानी, गिरी थी बर्फ़
सुबह की गीली मिट्टी
पृथकवास में रह गए लोगों को राहत पहुँचा रही है
उस गाँव से उड़कर चला आया कूना
इस गाँव के लोगों को खाँसने पर मजबूर कर रहा है।
- रचनाकार : प्रदीप्त प्रीत
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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