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मगर सपने अड़े हैं

magar sapne aDe hain

प्रमोद पाठक

प्रमोद पाठक

मगर सपने अड़े हैं

प्रमोद पाठक

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    कहे मुताबिक़

    मैं सब चीज़ों को बाहर छोड़ आया हूँ

    अपनी याद को पत्तों के बीच रख आया हूँ

    तुम उनके नीचे से गुज़रोगी छूते हुए

    तो ओस की बूँदें तुम्हारी हथेलियों को नम कर देंगी

    बस!

    अपनी चाहत को सौंप आया हूँ सितारों को

    किसी अँधेरी रात में एक बार उठा दोगी अपनी नज़र आसमान की तरफ़

    तो चमकीली लकीर बनाती एक उल्का बढ़ेगी तुम्हारे पाँवों की ओर

    उन्हें चूमने की अधूरी इच्छा लिए

    बेचैनी मैं अपनी धरती को सौंप आया

    और छोड़ दिया उसे घूमने के लिए चौबीसों घंटे

    ताकि वह ख़याल रख सके इस बात का

    कि दिन के समय दिन हो और रात के समय रात

    मैंने सपनों से कह दिया

    कि ढूँढ़ लें अब कोई और नींद की नदी

    वहीं जाकर तैराएँ अपनी काग़ज़ की नाव

    इस दरिया में अब पानी कम हुआ जाता है

    सबने मेरी बात मान ली

    मगर सपने अड़े हैं

    कहते हैं कि हम यहाँ के आदिवासी

    इसी किनारे रहेंगे

    चाहे जो हो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमोद पाठक
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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