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माधो बाबू

madho babu

मानबहादुर सिंह

मानबहादुर सिंह

माधो बाबू

मानबहादुर सिंह

और अधिकमानबहादुर सिंह

    माधो बाबू अपना पत्नी के दुहाजू हैं

    ज़रा सी घमतुत मधऊ धूप में भी

    छाता लगा बाहर निकलते हैं।

    उनकी आँखों में जिस दिन का इतंज़ार है

    उसका वक़्त इस समय में नहीं है।

    औरत का रूप कोई तिलिस्म नहीं है।

    सिर्फ़ कपड़ों के बाहर उग आने की बुलाहट है

    जिसे वह सुन सकता है

    पर जीवन की कोई नंगी आँच

    वह सह नहीं सकता है।

    जब पहली औरत कोख की प्यास में

    कपड़े के भीतर घुट रही थी

    माधो बाबू उन दिनों शरीर में सोए थे

    उसके मरने के बाद सपने में

    बहुत रोए थे

    उन्हें लगा उनकी नींद को

    बच्चे रो रहे थे

    हड़बड़ाकर उठे फ़ैसला किया

    दूसरा ब्याह करेंगे

    गोद के सुख की तलाश करेंगे।

    सफ़ेद बालों की कनखियों में

    गुलाबी साँसें उगीं

    उमर के लिहाज़ से चटक लगीं

    इसलिए शादी के बाद

    अपने लिए एक छाता ख़रीदा

    पत्नी के लिए काली साड़ी

    एक दिन अख़बारवाले ने कहा—

    ‘नक्सलबाड़ी’

    माधो बाबू सड़क पर छाता के नीचे

    हाँफ रहे थे

    साड़ी में लिपटी उनकी पत्नी

    तपते गालों का दिन

    सफ़ेद बालों की बग़ल

    दुपहर की धूप में गाँछ रही थी।

    मैंने कभी नहीं देखा कि उनका छाता

    फटा हो, पुराना हो—रोज़ नया ही लगा

    जैसे सरकारी समाजवाद का वादा।

    अपना फ़ैसला बचा रखने को

    बेचारे माधो बाबू समाज की

    हर रोशनी के ख़िलाफ़

    छाता लगा रखते थे

    और जब भी औरत

    काली साड़ी के भीतर बरसात के लिए तरसती

    वह बरसाती कविताएँ सुनाते

    मेघदूत की उपमाएँ पिलाते

    पर जब प्यास ज़रा और गुनगनी हो जाती

    छाता लगा अख़बार की ओर खिसक जाते।

    उनकी कामना है कि उसकी कोख अँखुआए

    पर यह एक ऐसा इंतज़ार है

    जिसका वक़्त

    अब उनके समय में नहीं है।

    मौसम के दिमाग़ में

    पुरवाई की आशंका बही

    उसने देखा—

    भुरभुरी मिट्टी के बाहर रेंगते

    लाल चींटियों के बेतरतीब बिंदु

    कविता में पंक्तिबद्ध हुए

    कपड़े की सभ्यता के भीतर

    घुस पड़े

    माधो बाबू की देह कुनमुना रही

    किवाड़ की ओट उनकी पत्नी

    कजली गुनगुना रही।

    ओह माधो बाबू

    तुम्हारी पत्नी धूप

    और तुम्हारे बर्फ़ से उजले बालों के बीच

    नंगी नक्सलबाड़ी की लाल बरसात

    और तुम्हारी औरत की काली साड़ी के बीच

    जो नाता है

    यह तुम्हारा लखनऊ तंत्र का छाता है।

    तुम्हारी बीमारी की हर करवट की नब्ज़ पर

    मेरी उँगलियाँ हैं

    तुम्हारी देह के प्रति छँटाक मांस पर

    मन भर नपुंसक विलासी थकान की दर से

    स्वरति पीड़ा है जो

    इन दिनों दिल्ली की मिठाइयाँ

    और विदेशी दवाइयाँ खाकर

    मोटी हो गई है।

    आज़ादी के बाद के ऋतु-परिवर्तन का

    नज़ला-जुक़ाम

    सन्निपात के बिंदु तक चढ़ा है

    ख़तरे के निशान पर

    आख़िरी छींकें रही हैं माधो बाबू!

    तुम्हारे छाते की लखनौआ मरदानगी

    जवान औरत की कोख को वसंती धूप से

    बचने को

    हिजड़े की लँगोटी हो गई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 62)
    • संपादक : जीवन सिंह, केशव तिवारी
    • रचनाकार : मानबहादुर सिंह
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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