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माट साहब

maat sahab

दीपक जायसवाल

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माट साहब

दीपक जायसवाल

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    माटी की मूरतों में

    प्राण भरते थे माट साहब

    चाक पर सभ्यता गढ़ते थे माट साहब।

    माट साहब के फटे कुर्ते की जेब में

    दो रंग की कूँचियाँ होती

    आँखों में भरते एक से आसमाँ

    दूजे से सिखाते धरती पर चलना।

    हमारे काँपते लरजते नाज़ुक हाथों में

    पहले-पहल अक्षर थमाते थे माट साहब

    फिर उनके ऊपर एक डंडी डाल

    अक्षरों को साथ रहना सिखाते

    शब्द-अर्थ-दुनिया भर के जादू

    समझाते-समझाते कभी-कभी

    रोने लगते मोटी ऐनक पैनी आँखों

    उजले बालों वाले माट साहब।

    हमारे पुरखे, शब्द, पत्थर, नदियाँ

    फूल, धरती, जुगनू-तारे

    उनके ऊँची सुनने वाले कानों में

    जाने कौन-कौन से

    गहरे-गहरे राज ख़ुद के कह जाते।

    चिड़ियाँ का चंद्रबिंदु जब हमसे छूट जाता

    हमें लंबी डाँट पिलाते बूढ़े सख़्त माट साहब

    मानो हमने चिड़ियाँ के पंखों को तोड़ दिया हो

    गले मरोड़ दिए हो

    या फिर अचानक कूद गए हों

    मेसोपोटामिया से लाए उनके चाक से।

    हमारी पुतलियों को सपने देखना

    उँगलियों को ख़्वाब बुनना

    पैरों को सलामती से काँटों भरे रास्तों से भी

    निकल जाने के गुन सिखाए

    तज़ुर्बेकार बूढ़े माट साहब।

    माट साहब हमारे नदी थे

    नदियाँ अपनी लंबी यात्राओं के दौरान

    बहुत बारीक़-बारीक़ कणों को जमाकर

    उपजाऊ ज़मीन बनाती हैं

    माट साहब ताउम्र जुटाई तज़ुर्बों की

    थाती सौंप गए इक दिन हमें

    सौंपी गई वसीयतें यों थी

    कि कठिन से कठिन दौर में

    चाहे कुछ भी बचे तुम्हारे पास

    धीरज और प्रेम बचाए रखना

    कि इस दुनिया में ईश्वर ने कुछ भी

    अकारथ नहीं बनाया

    कि आसमाँ तुम्हारे हौसलों से ऊँचा नहीं है

    और यह भी कि याद रखना अंतत:

    यह तुम्हारा शरीर किराए का है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीपक जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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