डॉ. जयनारायण के लिए
एक राजनैतिक रैली में
राजधानी को उमड़ी
भीड़ लौट रही थी
झंडे-बैनर समेटे
एक उत्तप्त उत्तेजना का ढो-ढो कर थकी हुई
सँवलाई
भीड़
जिसके पसीने से
सार्थकता की नहीं
निर्थकता की
गंध उठ रही थी
भरे हुए थे लोग
सीटों पर
एक की जगह दो
कसे हुए थे गलियारों में
जहाँ तिल धरने की जगह नहीं थी, वहाँ
दो जूते घुस जाते थे निर्भीक
और जगह बन जाती थी
ज़रूर वह
ट्रेन के उस डिब्बे में नहीं
लोगों के दिल में
बच रही जगह थी
थोड़ी-सी जगह
लेकिन काफ़ी
एक आदमी के समाने के लिए
उसी में था मैं
लौटता हुआ विमन
मित्र को मिल
जो भर्ती है
ज़ख़्मी देह, टूटी टाँग लिए
अस्पताल में
सड़क-दुर्घटना का मारा
घायल, वाहन-भिडंत में
बेतरह
मित्र वह लेखक मशहूर
प्रखर संपादक
हिंदी का योद्धा
जनता का हितू
जीवन की प्रतिमूर्ति
तोड़ न सकीं जिसे बाधाएँ
जकड़कर भी जिसके पैर
रोक न सकीं समय से जिसकी होड़
रह-रह फिरती थी
उसकी छवि आँखों में :
आतुरालय की अनातुर शय्या पर
लेटी हुई एक टूटी-फूटी देह
अक्षत मनवाली
क्लेशों से खेलती एक जिजीविषा मानवाकार
रह-रह गूँजते थे
उसके बोल कानों में :
अपनी ही हड्डियों का कड़कड़ाकर टूटना
धमाकों के बीच सुनाई देता है
और दिखाई देता है बेहोशी में बुझते-बुझते
उस तन का कंपन भी
ख़ून की एक बूँद बहाना भी जिसे गवारा नहीं
क्योंकि उसके ख़ून को
जमना नहीं आता
आता है बस बहते जाना—अजस्र अविराम
हीमोफ़ीलिया का मरीज़
दाढ़ी बनाने से डरनेवाला
मुझे नहीं मालूम, कैसे आए हैं
फ़ैक्टर एट के मँहगे इंजेक्शन
दो बखत में ही दस हज़ार रुपय लगते हैं—
कहते हैं, शाही बीमारी है यह
इंग्लैंड के राजपरिवार में पलनेवाली
किन्हीं की औक़ात के अनुरूप
अपनी तो बिसात के बाहर
जाने कैसे एक साधारण आनुवंशिकी में घुस आई
एक असाधारण बीमारी
हीमोफ़ीलिया! हिम जो जाता है मन सुनकर जिसका नाम
काश! अब तन भी होता
लहू जाता जम धमनियों में
लेकिन यही तो नाकाबिलियत!
इस रोग की असलियत!
असलियत हमारी वर्गीय स्थिति है
विषम परिस्थिति है!
मैंने देखा था तब
मौत के मुहाने से जीवन के लौट आने की ख़ुशी को
लील रही थी एक व्याकुलता
सिरहाने से पैताने तक
व्यापती
उस शय्या के
जो कहलाती है बेड नंबर बारह
आर्थोपेडिक इमर्जेंसी की
लखनऊ मेडिकल कॉलिज हास्पिटल में
मंडलित
संबंधियों से, शुभचिंतको से
जिनमें अनेक
हिंदी के लेखक प्रसिद्ध
खड़े वेदना-बिद्ध
निरुपाय
निरुपाय वे
जो लोकतंत्र के पहरुए हैं
रिक्त-हस्त
तिक्त-त्रस्त
देखते लोकतंत्र उनका शोकतंत्र
इस लोकतंत्र में
कुछ है जो अलौकिक है
तीन बार छींक उठने पर
या कभी दम फूल जाने पर
या तनिक चक्कर आने पर
या केवल असगुन से दंशित
उधियानों में उड़ जाते हैं विदेश
स्वास्थ्य-परीक्षण के लिए उपकरण-सज्जित अस्पतालों में
सरकारी खर्चे पर
यानी जनता के पैसों पर
क्योंकि वे जन-नेता
विजेता
शेष सब पराजित हैं
खस्ताहाल खैराती अस्पतालों में चित्त हैं
यह सोचते एक धक्का लगा
वह विचार का धक्का नहीं था
रेला था
मैं दूर तक गया धकेला था
ओह! क्यों बटोरते हैं वे लोगों को
दूर-दूर से भाँति-भाँति से जुटाते हैं
कौन-सी ख़ुशख़बरी है उनके पास जो शोकांतिका न निकले
अक्षांश और देशांतर रेखाओं के बीच
विषुवत् रेखा के समानांतर
उन्होंने एक बेवजूद विभाजक-रेखा खींची है
जिसके इधर या उधर
तुम उनके या किनके
सांप्रदायिक या सेकुलर
उनकी राजनीति में नीति का क्या अर्थ है
कि वह केवल घास-फूस से मुँह-ढँका गर्त है
तब तक मैं धकियाया जाकर
दो संडासों के बीच की जगह में अँडसा था
उमस में उमचती एक तीखी गंध भोथर कर रही थी दिमाग़
और भीतर कहीं लग-सी रही थी आग
कि तभी मैंने देखा
गलियारे में घुस आई थीं
एक जोड़ा सान धरनेवाली मशीनें
दिन-भर घूम-घूम
घर-घर मुरझाए पड़े
छुरी-चाकू कैंची-पँहसुल औज़ार-हथियार
को नई धार देने में लगी रहने वाली
तीक्ष्णकर मशीनें
अजय-विजय की
घट्ठिल हथेलियों वाले जो बारह-चौदह के दो भाई
जिनकी वे सान-धर मशीनें
दिन-भर अलग-अलग घूम-घूम, शान से घूमते शाण-चक्रवाली
इकट्ठे लौटतीं इसी ट्रेन से
छहबजिया से
आज
डिब्बे की भभकभीड़ में
अनहिल पैडिल और रुके हुए गतिचक्रवाली
गलियारे की दीवार से टिकीं
एक साथ, एकटक मुझे ताकतीं
उठती नहीं सान धरने की आवाज़
उड़ती नहीं चिनगारियाँ
लेकिन मेरे मन पर से
हताशा की जंग छूटती-सी
धार पाता-सा भोथराया दिमाग़
लोहा-सा घुलता लहू में, कहता :
हारो नहीं, लोहा लो, लोहा लो
- पुस्तक : संशयात्मा (पृष्ठ 216)
- रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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