डूबता चाँद कब डूबेगा
Dubta chand kab Dubega
अँधियारे मैदान के इन सुनसानों में
बिल्ली की, बाघों की आँखों-सी चमक रहीं
ये राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय, मत्सर की आँखें,
हरियातूता की ज़हरीली-नीली-नीली
ज्वाला, कुत्सा की आँखों में।
ईर्ष्या-रूपी औरत की मूँछ निकल आई।
इस द्वेष-पुरुष के दो हाथों के
चार और पंजे निकले।
मत्सर को ठस्सेदार तेज़ दो बौद्धिक सींग निकल आए।
स्वार्थी भावों की लाल
विक्षुब्ध चींटियों को सहसा
अब उजले पर कितने निकले।
अँधियारे बिल से झाँक रहे
सर्पों की आँखें तेज़ हुईं।
अब अहंकार उद्विग्न हुआ,
मानव के सब कपड़े उतार
वह रीछ एकदम नग्न हुआ।
ठूँठों पर बैठे घुग्घू-दल
के नेत्र-चक्र घूमने लगे
इस बियाबान के नभ में सब
नक्षत्र वक्र घूमने लगे।
कुछ ऐसी चलने लगी हवा,
अपनी अपराधी कन्या की चिंता में माता-सी बेकल
उद्विग्न रात
के हाथों से
अँधियारे नभ की राहों पर
है गिरी छूटकर
गर्भपात की तेज़ दवा
बीमार समाजों की जो थी।
दुर्घटना से ज्वाला काँपी कंदीलों में
अँधियारे कमरों की मद्धिम पीली लौ में,
जब नाच रही भीतों पर भुतही छायाएँ
आशंका की—
गहरे कराहते गर्भों से
मृत बालक ये कितने जनमे,
बीमार समाजों के घर में!
बीमार समाजों के घर में
जितने भी हल है प्रश्नों के
वे हल, जिनके पूर्व मरे।
उनके प्रेतों के आस-पास
दार्शनिक दुखों की गिद्ध-सभा
आँखों में काले प्रश्न-भरे बैठी गुम-सुम।
शोषण के वीर्य-बीज से अब जनमे दुर्दम
दो सिर के, चार पैर वाले राक्षस-बालक।
विद्रूप सभ्यताओं के लोभी संचालक।
मानव की आत्मा से सहसा कुछ दानव और निकल आए!
मानव मस्तक में से निकले
कुछ ब्रह्म-राक्षसों ने पहनी
गाँधी जी की टूटी चप्पल
हरहरा उठा यह पीपल तब
हँस पड़ा ठठाकर, गर्जन कर, गाँव का कुआँ।
तब दूर, सुनाई दिया शब्द, 'हुआँ' 'हुआँ'!
त्यागे मंदिर के अध-टूटे गुंबद पर स्थित
वीरान प्रदेशों का घुग्घू
चुपचाप, तेज़, देखता रहा—
झरने के पथरीले तट पर
रात के अँधेरे में धीरे
चुपचाप, कौन वह आता है, या आती है,
उसके पीछे—
पीला-पीला मद्धिम कोई कंदील
छिपाए धोती में (डर किरणों से)
चुपचाप कौन वह आता है या आती है—
मानो सपने के भीतर सपना आता हो,
सपने में कोई जैसे पीछे से टोके,
फिर, कहे कि ऐसा कर डालो!
फिर, स्वयं देखता खड़ा रहे
औ' सुना करे वीराने की आहटें, स्वयं ही सन्नाकर
रह जाए अपने को खो के!
त्यागे मंदिर के अध-टूटे गुंबद पर स्थित
घुग्घू की आँखों को अब तक
कोई भी धोखा नहीं हुआ,
उसने देखा—
झरने के तट पर रोता है कोई बालक,
अँधियारे में काले सियार-से घूम रहे
मैदान सूँघते हुए हवाओं के झोंके।
झरने के पथरीले तट पर
सो चुका, अरे, किन-किन करके, कुछ रो-रो के
चिथड़ों में सद्योजात एक बालक सुंदर।
आत्मा-रूपी माता ने जाने कब त्यागा
जीवन का आत्मज सत्य न जाने किसके डर?
माँ की आँखों में भय का कितना बीहड़पन
जब वन्य तेंदुओं की आँखों से दमक उठे
गुरु शुक्र और तारे नभ में
जब लाल बबर फ़ौजी-जैसा
जो ख़ूनी चेहरा चमक उठा
वह चाँद कि जिसकी नज़रों से
यों बचा-बचा,
यदि आत्मज सत्य यहाँ रक्खें झरने के तट,
अनुभव शिशु की रक्षा होगी।
ले इसी तरह के भाव अनगिनत लोगों ने
अपने ज़िंदा सत्यों का गला बचाने को
अपना सब अनुभव छिपा लिया,
हाँ में हाँ, नहीं नहीं में भर
अपने को जग में खपा लिया!
चुपचाप सो रहा था मैं अपने घर में जब,
सहसा जगकर, चट क़दम बढ़ा,
अँधियारे के सुनसान पथों पर निकल पड़ा,
बहते झरने के तट आया
देखा—बालक! अनुभव-बालक!!
चट, उठा लिया अपनी गोदी में,
वापस ख़ुश-ख़ुश घर आया!
अपने अँधियारे कमरे में
आँखें फाड़े मैने देखा मन के मन में
जाने कितने कारावासी वसुदेव
स्वयं अपने कर में, शिशु-आत्मज ले,
बरसाती रातों में निकले,
धँस रहे अँधेरे जंगल में
विक्षुब्ध पूर में यमुना के
अति-दूर, अरे, उस नंद-ग्राम की ओर चले।
जाने किसके डर स्थानांतरित कर रहे वे
जीवन के आत्मज सत्यों को,
किस महाकंस से भय खाकर गहरा-गहरा।
भय से अभ्यस्त कि वे उतनी
लेकिन परवाह नहीं करते !!
इसलिए, कंस के घंटाघर
में ठीक रात के बारह पर
बंदूक़ थमा दानव-हाथों,
अब दुर्जन ने बदला पहरा!
पर इस नगरी के मरे हुए
जीवन के काले जल की तह
के नीचे सतहों में चुप
जो दबे पाँव चलती रहतीं
जल-धाराएँ ताज़ी-ताज़ी निर्भय, उद्धत
तल में झींरे वे अप्रतिहत!
कानाफूसी से व्याप्त बहुत हो जाती है,
इन धाराओं में बात बहुत हो जाती है।
आते-जाते, पथ में, दो शब्द फुसफुसाते
इनको, घर आते, रात बहुत हो जाती है।
एक ने कहा—
अंबर के पलने से उतार रवि—राजपुत्र
ढाँककर साँवले कपड़ों में
रख दिशा-टोकरी में उसको
रजनी-रूपी पन्ना दाई
अपने से जन्मा पुत्र-चंद्र फिर सुला गगन के पलने में
चुपचाप टोकरी सिर पर रख
रवि-राजपुत्र ले खिसक गई
पुर के बाहर पन्ना दाई।
यह रात-मात्र उसकी छाया।
घबराहट जो कि हवा में है
इसलिए कि अब
शशि की हत्या का क्षण आया।
अन्य ने कहा—
घन तम में लाल अलावों की
नाचती हुई ज्वालाओं में
मृद चमक रहे जन-जन मुख पर
आलोकित ये विचार हैं अब,
ऐसे कुछ समाचार हैं अब
यह घटना बार-बार होगी,
शोषण के बंदीगृह-जन में
जीवन की तीव्र धार होगी!
और ने कहा—
कारा के चौकीदार कुशल
चुपचाप फलों के बक्से में
युगवीर शिवाजी को भरते
जो वेश बदल, जाता दक्षिण को ओर निकल!
एक ने कहा—
बंदूक़ों के कुंदों पर स्याह अंगूठों ने
लोहे के घोड़े खड़े किए,
पिस्तौलों ने अपने-अपने मुँह बड़े किए,
अस्त्रों को पकड़े कलाइयों
की मोटी नस हाँफने लगी
एकाग्र निशाना बने ध्यान के माथे पर
फिर मोटी नसें कसीं, उभरीं
पर पैरों में काँपने लगीं।
लोहे की नालों की टापें गूँजने लगीं।
अंबर के हाथ-पैर फूले,
काल की जड़ें सूजने लगीं।
झाड़ों की दाढ़ी में फंदे झूलने लगे,
डालों से मानव-देह बँधे झूलने लगे।
गलियों-गलियों हो गई मौत की गस्त शुरू,
पागल-आँखों, सपने सियाह बदमस्त शुरू!
अपने ही कृत्यों-डरी
रीढ़ हड्डी
पिचपिची हुई,
वह मरे साँप के तन-सी ही लुचलुची हुई।
अन्य ने कहा—
दुर्दांत ऐतिहासिक स्पंदन
के लाल रक्त से लिखते तुलसीदास आज
अपनी पीड़ा की रामायण,
उस रामायण की पीड़ा के आलोक-वलय
में मुख-मंडल माँ का झुर्रियों-भरा
उभरा-निखरा,
उर-कष्ट-भरी स्मित-हँसी
कि ज्यों आहत पक्षी
रक्तांकित पंख फड़फड़ाती
मेरे उर की शाखाओं पर आ बैठी है
कराह दाबे गहरी
(जिससे कि न मैं जाऊँ घबरा)
माँ की जीवन-भर की ठिठुरन,
मेरे भीतर
गहरी आँखोंवाला सचेत
बन गई दर्द।
उसकी जर्जर बदरंग साड़ी का रंग
मेरे जीवन में पूरा फैल गया।
मुझको, तुमको
उसकी आस्था का विक्षोभी
गहरी धक्का
विक्षुब्ध ज़िंदगी की सड़कों पर ठेल गया।
भोली पुकारती आँखें वे
मुझको निहारती बैठी हैं।
और ने कहा—
वह चादर ओढ़, दबा ठिठुरन, मेरे साथी!
वह दूर-दूर बीहड़ में भी,
बीहड़ के अंधकार में भी,
जब नहीं सूझ कुछ पड़ता है,
जब अँधियारा समेट बरगद
तम की पहाड़ियों-से दिखते,
जब भाव-विचार स्वयं के भी
तम-भरी झाड़ियों-से दिखते।
जब तारे सिर्फ़ साथ देते
पर नहीं हाथ देते पल-भर
तब, कंठ मुक्त कर, मित्र-स्वजन
नित नभ-चुंबी गीतों द्वारा
अपना सक्रिय अस्तित्व जताते एक-दूसरे को
वे भूल और फिर से सुधार के रास्ते से
अपना व्यक्तित्व बनाते हैं।
तब हम भी अपने अनुभव के सारांशों को
उन तक पहुँचाते हैं, जिसमें
जिस पहुँचाने के द्वारा, हम सब साथी मिल
दंडक वन में से लंका का
पथ खोज निकाल सकें प्रतिपल
धीरे-धीरे ही सही, बढ़ उत्थानों में अभियानों में
अँधियारे मैदानों के इन सुनसानों में
रात की शून्यताओं का गहरापन ओढ़े
ज़्यादा मोटे, ज़्यादा ऊँचे, ज़्यादा ऐंठे
भारी-भरकम लगने वाले
इन क़िले-कंगूरों-छज्जों-गुंबद-मीनारों
पर, क्षितिज-गुहा-माँद में से निकल
तिरछा झपटा,
जो गंजी साफ़-सफ़ेद खोपड़ीवाला चाँद
कुतर्की वह
सिर-फिरे किसी ज्यामिति-शाली-सा है।
नीले-पीले में घुले सफ़ेद उजाले की
आड़ी-तिरछी लंबी-चौड़ी
रेखाओं से
इन अंधकार-नगरी की बढ़ी हुई
आकृति के खींच खड़े नक्षे
वह नए नमूने बना रहा
उस वक़्त हवाओं में अजीब थर्राहट-सी
मैं उसको सुनता हुआ,
बढ़ रहा हूँ आगे
चौराहे पर
प्राचीन किसी योद्धा की ऊँची स्फटिक मूर्ति,
जिस पर असंग चमचमा रही है
राख चाँदनी की अजीब
उस हिमीभूत सौंदर्य-दीप्ति
में पुण्य कीर्ति
की वह पाषाणी अभिव्यक्ति
कुछ हिली।
उस स्फटिक मूर्ति के पास
देखता हूँ कि चल रही साँस
मेरी उसकी।
वे होंठ हिले
वे होंठ हँसे
फिर देखा बहुत ध्यान से तब
भभके अक्षर!!
वे लाल-लाल नीले-से स्वर
बाँके टेढ़े जो लटक रहे
उसके चबूतरे पर, धधके!!
मेरी आँखों में धूमकेतु नाचे,
उल्काओं की पंक्तियाँ काव्य बन गईं
घोषणा बनी!!
चाँदनी निखर हो उठी
उस स्फटिक मूर्ति पर, उल्काओं पर
मेरे चेहरे पर!!
पाषाण मूर्ति के स्फटिक अधर
पर वक्र-स्मित
कि रेखाएँ उसकी निहारती हैं
उन रेखाओं में सहसा मैं बँध जाता हूँ
मेरे चेहरे पर नभोगंधमय एक भव्यता-सी।
धीरे-धीरे मैं क़दम बढ़ा
गलियों की ओर मुड़ा
जाता हूँ। ज्वलत् शब्द-रेखा
दीवारों पर, चाँदनी-धुँधलके में भभकी
वह कल होनेवाली घटनाओं की कविता
जी में उमगी!!
तब अंधकार-गलियों की
गहरी मुस्कुराहट
के लंबे-लंबे गर्त-टीले
मेरे पीले चेहरे पर सहसा उभर उठे!!
यों हर्षोत्फुल्ल ताज़गी ले
मैं घर में घुसता हूँ कि तभी
सामने खड़ी स्त्री कहती है—
अपनी छायाएँ सभी तरफ़
हिल-डोल-रहीं,
ममता मायाएँ सभी तरफ़
मिल बोल रहीं,
हम कहाँ नहीं, हम जगह-जगह
हम यहाँ-वहाँ,
माना कि हवा में थर्राता गाना भुतहा,
हम सक्रिय हैं।
मेरे मुख पर
मुस्कानों के आंदोलन में
बोलती नहीं, पर डोल रही
शब्दों की तीखी तड़ित्
नाच उठती, केवल प्रकाश-रेखा बनकर!
अपनी खिड़की से देख रहे हैं हम दोनों
डूबता चाँद, कब डूबेगा!!
- पुस्तक : चाँद का मुँह टेढ़ा है (पृष्ठ 69)
- रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.