तुम ख़ुद हाथ में रेत लेकर
उस में चमकते चाँदी के ज़र्रे देखते रहे
तुम्हें किसी ने नहीं भरमाया
और उसमें तुमने देखीं
दीवारें टटोलती हताश भीड़ें
सुरंगों के पार जलती हुई स्वर्ण-लंकाएँ
गटर में छुरे फेंकते सियाह चेहरे
समुंदर की तरह काँपती लड़कियाँ
दुर्घटनाएँ लिए जाती रेलगाड़ियाँ...
तुम्हें यह भी ख़याल न रहा
कि कितना समय गुज़र गया है
जो लोग तुम्हारे साथ यहाँ तक आए थे
वे बार-बार तुम्हें पुकार कर
चले गए
क्योंकि उनकी अपनी ज़िम्मेदारियाँ थीं
और शाम हो जाने के बाद
वे इस बदनसीब इमारत में रुकने के लिए
तैयार नहीं थे।
रात होते ही
खिड़की के पार से
वह हसीन चेहरा झाँकेगा
जिसके बारे में तुम सुन चुके हो
तब उस परिस्थिति का मुक़ाबला
तुम अपने भीतर की किन ताक़तों के सहारे करोगे
यह तुम्हें उसी समय मालूम होगा,
मैं इसमें तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूँगा
मैं ज़्यादा से ज़्यादा इतना बता सकता हूँ
कि या तो यह होगा
कि सुबह आकर
मुझे तुम्हारा नाम
उन लोगों की फ़ेहरिस्त में लिखना होगा
जिनके वापस आने की कोई उम्मीद नहीं
या फिर...
या फिर क्या होगा, यह बताना
मेरे लिए कठिन है
क्योंकि आज तक इसके अतिरिक्त कुछ
घटित हुआ ही नहीं
सिर्फ़ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आती हुई
एक अफ़वाह है
कि यातना भरी मृत्यु के अलावा भी
एक विकल्प है
उसकी क्या शक्ल है
और किस तरह वह घटित होगा
इसकी कोई साफ़ तस्वीर
अफ़वाह में शामिल नहीं है।
यों यह मृत्यु यातना भरी है।
यह भी मैं अंदाज़ से कहता हूँ
क्योंकि मैंने आज तक उस क्षण को देखा नहीं
जब हसीन चेहरे
और भटके हुए मुसाफ़िर का साक्षात्कार होता है
हो सकता है
कि वास्तविक अनुभूति कुछ और हो
क्योंकि ऐसी रातों में
देर तक मैंने
अट्टहास और संगीत सुने हैं
क़रीब तीसरे पहर जाकर
भयानक चीख़ सुनाई पड़ती है:
इस लिए यह कहना
कि इसमें सब कुछ यातना ही है, कठिन है
हो सकता है इसमें सुख भी हो
या सौंदर्य का तेज़ प्रकाश ही
आँखों पर छा जाता हो
क्योंकि इतना मैंने ज़रूर देखा है
कि सुबह सब कुछ ज्यों का त्यों हो जाने के बाद
यह सारा वातावरण
बेहद ख़ूबसूरत हो जाता है
जैसे दुर्घटना को पचा लेने के बाद
जंगल ख़ूबसूरत हो जाता है
मुझे सख़्त ताज्जुब होता है
कि इस थोड़े समय के साथ के कारण
लोग तीसरे पहर
मेरा नाम लेकर क्यों पुकारते हैं
क्या आख़िरी आदमी
इतना गहरा सहारा देकर विदा होता है?
मैं तुमसे बता चुका हूँ
कि मैं चाहूँ भी
तो तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता
इसलिए अगर तुम मंज़ूर करो
तो सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा।
कि मेरा नाम लेकर न पुकारना।
सुनो,
बाहर बाग़ से
हल्की सुरीली आवाज़ें आ रही है
जैसे कोई बाँसुरी का आरंभ कर रहा हो
यही वह वक़्त है
जब यहाँ से जाता हुआ मैं
फ़रिश्ते की तरह दिखाई देता हूँ
अक्सर लोगों ने मुझसे इस वक़्त कहा है
कि मैं लालटेन ऊँची कर दूँ
ताकि वे मेरा चेहरा अच्छी तरह देख सकें
तुम चाहो तो
मैं तुम्हारे लिए भी यही कर सकता हूँ
मैं नहीं जानता कि मेरा चेहरा
तुम्हें किन सुनसान समुद्र तटों
या अँधेरी गुफाओं
या शांत डरावने शिखरों की याद दिलाता है
लेकिन सच यह है
कि मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है
जिसे मैं तुम्हें दे जाऊँ
मेरे जाते ही
यहाँ जहाँ मैं खड़ा हूँ
तुम्हें एक ख़ालीपन का एहसास होगा
जिसे तुम हाथ बढ़ाकर
छूने की कोशिश करोगे।
शायद इस रेत को फिर
अंजलि में उठाकर देखने से काम चल जाए
बशर्ते कि तुम इस तरह रात काट सको
इससे तुम अपनी आँखों को
बाहर देखने से रोक सकोगे
लेकिन कानों का क्या करोगे
उनमें तो यह दिलकश रागिनी
और पास, और पास आती हुई गूँजेगी।
फिर तुम अपने को कैसे रोकोगे?
या शायद तन कर खड़े होने से काम चले
वह नहीं जो भविष्य के नाम पर
चुनौतियाँ देने से उपजता है
बल्कि वह जो आख़िरी निर्णय के बाद सहसा
बिल्कुल अकिंचन हो जाने से
उत्पन्न होता है,
तब शायद तुम्हारी आँखें
न सिर्फ़ शीशे के पार
बल्कि शीशे के पार दिखती हुई छवि के भी आरपार
देखने लगें
तब तुम देखोगे कि यहाँ से वहाँ तक
अटूट अँधेरा है
जो माँद में मरते हुए जानवर की तरह
साँस लेता है।
मगर मैं यह सब
सिर्फ़ अनुमान के भरोसे कह रहा हूँ
क्योंकि मेरा अनुभव बहुत सीमित है
और मेरे लिए वे सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं
जिनसे होकर
चमकता हुआ जोख़म प्रवेश करता है
और ख़ून की आख़िरी बूँद तक को
आत्मा में बदल डालने की माँग करता है
सच तो यह है
कि इस सारे वातावरण की तरह
मैं भी सिर्फ़ इंतज़ार कर रहा हूँ
उस विकल्प का
जिसकी अफ़वाह
रात की हवा की तरह
समय के एक छोर से दूसरे छोर तक
मँडराती हुई सुनाई पड़ती है।
आवाज़ आ रही है।
सुबह शायद एक नए घटनाक्रम का आरंभ होगा
हो सकता है तब मैं न रहूँ
शायद मेरा न रहना भी
उस घटनाक्रम की ज़रूरी कड़ी हो
क्योंकि उस अप्रत्याशित को
न मैं जानता हूँ, न तुम
न रेत में चमकती हुई तसवीरें
न ये पत्थर, न वनस्पतियाँ
जो इंतज़ार कर रही हैं
मगर मुझे कोई ग़म न होगा
क्योंकि मुझे जिन शर्तों से बाँध दिया गया है
वहाँ इंतज़ार और अस्तित्व दो चीजें नहीं हैं
उसके ख़त्म होने के बाद
मेरे लिए रह ही क्या जाएगा?
सुरीली आवाज़ आ रही है
और पेड़ों की पत्तियाँ जग़मगा रही हैं
मेरे जाने का वक़्त हो गया है
क्योंकि अब तुम भी तार की तरह काँप रहे हो।
मैं नहीं जानता कि तुम्हारे भीतर
पैर के अँगूठे से लेकर गले तक
जो कुहराम बज रहा है
उसकी परिणति क्या है
मगर मैंने जो कुछ कहा है
उसे तुम भूल जाना
या यह कहना भी फिज़ूल है
क्योंकि उस चेहरे के खिड़की तक आते ही
तुम ख़ुद ही सब कुछ भूल जाओगे
तुम्हारी आँखें पेड़ की पत्तियों की तरह जगमगाने लगेंगी
और तुम्हारे भीतर से उसका जन्म होगा
जो तुम्हारी ओर से
बिना तुम्हारी अनुमति के बोलता है
वही तुम्हारी रक्षा करता है
या फिर
आवाज़ आ रही है।
तुम ख़ुद हाथ में रेत लेकर
उसमें चमकते चाँदी के ज़रें देखते रहे
तुम्हें किसी ने नहीं भरमाया...
- पुस्तक : मछलीघर (पृष्ठ 114)
- रचनाकार : विजय देव नारायण साही
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1995
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