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लोकतंत्र

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आदित्य रहबर

आदित्य रहबर

लोकतंत्र

आदित्य रहबर

और अधिकआदित्य रहबर

    सोने की अथक कोशिशों के बावज़ूद

    मेरी आँखें जाग रही हैं

    जैसे बुझ जाने के बाद भी

    जलती रहती है लाशें

    डोम की आँखों में

    मेरा जीवन एक मसान है

    और मेरी आँखें डोम जैसी

    जिनकी आकांक्षाओं ने

    हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा जलाया है मुझे

    उस पेड़ पर क्या बीती होगी

    जिसे काट दिया गया

    महज़ इस ख़ातिर

    कि जलाया जा सके किसी मरी हुई देह को

    मेरी आत्मा उसी मृत देह की भाँति है

    जिसे जलाने के लिए

    हमने काट दिए हैं

    अनगिनत पेड़

    जो कल तक हरे थे किसी की आँखों में

    हम सब अव्वल दर्जे के स्वार्थी हैं

    समाजवाद की छतरी में

    हमने ख़ुद को इसलिए छुपाए रखा है

    ताकि हमारी बेईमानी की नुमाइश

    ना हो सके खुले आसमान में

    जबकि हम सब नंगे हैं

    अपनी-अपनी आँखों में

    लोकतंत्र उस बुद्धुआ की लुगाई जैसा है

    जिसे सब अपनी आँखों को ठंडा करने के लिए

    अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करते हैं

    और आख़िर में

    छोड़ देते हैं नंगा, बेबस और लाचार

    यूँ ही खुले में फुटपाथ पर

    जहाँ बची-खुची आँखें

    अपनी हवस शांत करती हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आदित्य रहबर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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