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लो मैं लिख रहा हूँ एक प्रेम कविता

lo main likh raha hoon ek prem kawita

सौम्य मालवीय

सौम्य मालवीय

लो मैं लिख रहा हूँ एक प्रेम कविता

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

    लो मैं लिख रहा हूँ

    एक प्रेम कविता

    इसमें प्रस्तुत करूँगा मैं

    प्रेम का वही आद्यबिम्ब

    हाँ वही 'प्रोटोटाइप'

    इससे इस बात की तस्दीक़ होगी कि

    मैंने भी अपने पुरखों की तरह ही प्यार किया!

    शक की थोड़ी भी गुंजाइश जो रह जाए अगर

    तो क़लम मेरी क़िमारख़ाने में उछाली जाए!

    सबसे पहले तो चुनूँगा मैं

    किसी संस्कृत काव्य-नाटिका से तुम्हारे लिए

    कोई सांगीतिक-सा नाम

    कि तुम्हें पुकारना ही काव्य हो

    और एक समृद्ध परंपरा को आमंत्रण भी

    फिर ये संबोधन मेरे आगामी संकलन के

    शीर्षक के लिए भी उपयुक्त रहेगा!

    (अब अगर कनुप्रिया कहने पर कनु के रूप में

    मुझ पर इशारा जाता हो तो निस्संदेह यह मेरा अभिप्रेत नहीं)

    अगला क़दम होगा

    संवेदनाओं की एकवचनीयता को सार्वजनीन बनाना

    ऐसा करने के छोटे-बड़े कई उदाहरण हैं मेरे सामने

    और कुछ नहीं बस प्रेम को एक अनुभूति या संवेग से

    एक अवधारणा तक ले जाना होगा

    जैसे दोस्त,

    कॉमरेड बन जाते हैं तुम भी

    प्रेयसी से बढ़कर कुछ लिखी जाओगी

    'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’

    के सवाल से बढ़कर ‘हमारा’

    मतलब ‘मेरी' कविता का जवाब होगा कि

    हमारी पॉलिटिक्स ‘ये’ है

    और हमारा प्रेम

    ‘महज़’ एक उपादान भर है!

    समझ लो

    उत्कर्ष ही छू लेगी कविता

    जो पाठकों को लगने लगे

    कि वे वैयक्तिक प्रेम के नहीं

    किसी वैचारिक निष्ठा के बारे में पढ़ रहे हैं!

    जो धर्म, जाति या राष्ट्र के आग्रहों से ज़रा भी इतर नहीं!

    तुमने देखा होगा क्रांतियों को व्यवस्था बनते हुए

    पर मेरा ये शाहकार संयोग को सत्ता में बदल देगा

    एक उदात्त प्रेम की 'एब्सोल्यूट' सत्ता!

    खींचना होगा मुझे

    गहन दुरुहताओं का

    एक पसमंज़र-सा

    तभी तो प्यार हमारा

    किसी मणि-सा चमकेगा

    जिसे बचाकर हिंसा के सैलाबों से ले आया 'मैं'

    मैं 'काव्यात्मन फणिधर'

    'कौन मनु वह?' के जवाब में सगर्व बोलूंगा

    'मैं, मैं एक आसक्तिहीन तापसचेता प्रेम कवि’

    और तुम,

    तुम भी होगी कहीं आस-पास

    कर्पूरी गंध की तरह

    पर ज़ाहिर है कि अभिव्यक्ति के

    और प्रेम के ख़तरे भी मुझे ही उठाने होंगे!

    तो तुम समझ रही हो

    कितनी मुश्किल है प्रेम कविता

    और कितना कुछ दाँव पर

    लगा होता है इसे लिखने में

    जब अबोध-सी तुम कह पड़ती हो

    कि यह तो चिढ़ की कविता है

    तो दरअसल उस महान द्वंद्वात्मक नियम को

    नहीं समझ रही होतीं

    जिसके तहत मित्रता शत्रुता में बदल जाती है

    प्रेम द्वेष में बदल जाता है

    और असहमतियाँ नमस्कार में!

    तुम्हारे प्रेम के

    निपट एकाकी नंगेपन से

    भय लगता है मुझे

    जिससे लड़ने के लिए

    आजीवन ही लिखता रहूँगा मैं प्रेम कविताएँ

    छीलूँगा तराशूँगा शब्दों को

    उन्हें प्रेम कविता की निर्मिति के लिए

    दुरुस्त बनाऊँगा

    अर्थ-स्फीति को रेशम से कसूँगा

    तलाशूँगा नापैद लफ़्ज़

    उनसे बुनूँगा

    अपने प्यार का परचम किसी 'ब्रोकेड' की तरह

    और उसे डाल दूँगा तुम पर प्रिये!

    हाँ कुछ इसी तरह मैं

    प्रेम को परिधान करूँगा!!

    तो लो मैं लिख रहा हूँ एक प्रेम कविता

    अब तुम इतना तो कर ही सकती हो

    कि एक विषय की तरह मुझे सहज ही उपलब्ध हो जाओ

    ज़रूरत पड़ने पर आग बनो, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश भी

    और मेरी कविता में पंचतत्त्व में विलीन हो जाओ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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