लेनिन की मृत्यु
lenin ki mrityu
आ गया है समय
लेनिन की कथा
प्रारंभ करने का
नहीं इस कारण
व्यथा कम हो गई है
वरन् पहली बार के आघात ने
दर्द को स्पष्टतः
कुछ और गहरा कर दिया है
आ गया है समय
उसके स्वरों को फिर से
प्रबल गतिमय बनाने का
जो हुआ
उस पर नहीं आँसू बहाने का
इस विश्व में
लेनिन से अधिक कोई नहीं ज़िंदा
वह ज्ञान है
बल है
हथियार है अपना
जलयान है जनता
मगर थल का
पूर्व इसके पंथ निश्चित पार कर जाए
जल-जीव इसकी पसलियों से चिपटते हैं
प्रगति अवरुद्ध करते हैं
मगर जब तोड़कर तूफ़ान
बंदरगाह पर आता
तब खड़ा हो धूप में कोई
कीच-कचरा जलचरों को साफ़ कर देता
स्वच्छ होने के लिए
लेनिन निकट मैं जा रहा
तिर सकूँ जो क्रांति-पारावार
इस विरुदावली से मुझे
इस तरह संकोच है
बच्चा कोई जैसे
झूठ से भयभीत है
उस विवेकी सत्पुरुष वैराट लेनिन का
प्रभामंडित भाल है नभ में
काव्य की जयमाल यह पहना सकूँगा
हूँ सशंकित मैं
मुझे डर है
कि कहीं यह मक़बरे
उत्सवों की शान-शौक़त
भक्ति-पूजा
सुगंधों का प्रलेपन
कहीं लेनिन
और उसकी सादगी को ही न ढक दें
सोचकर यह काँप जाता हूँ
कहीं अपनी नुमायश से
नहीं अपकार कर दे ये
जिसे मैं प्यार करता हूँ
यही मेरे प्राण की आवाज़ है
कर नहीं सकता जिसे मैं अनसुना
यही मेरे गीत की है प्रेरणा
मस्क्वा सारा जमा है बर्फ़ से
काँपती फिर भी धरा आवेश से
शीत से आहत हुए
आग पर आकर झुके
कौन है वह
क्या किया उसने
कहाँ जन्मा
मरण पर एक व्यक्ति के
सम्मान क्यूँ इतना
दिमाग़ी इस तिजोरी से
निकल कर शब्द आते हैं
निरंतर
किंतु इनसे काम
कुछ भी तो नहीं चलता
कितनी ग़रीबी है
शब्द के इस कारख़ाने में
उस मृतात्मा के लिए
कहाँ पाऊँगा
शब्द वह
जिसकी ज़रूरत है
घंटे मिले बारह
दिवस हैं सात कामों को
ज़िंदगी आई
गई
मौत से बचता नहीं कोई
अगर घड़ियाँ
समय के संकेत में असमर्थ
कलेंडर-बुद्धि भटकी है
तब तो यह कहूँगा मैं
वह 'युगांतर' था
'युग' या इसी-सा सार्थक कुछ
आओ बदल दें बात को अब कुछ
रात को सोते
दिवस में व्यस्त रहते
सभी अपना नीर
अपनी खरल में मथते
व्यर्थ ही जीवन गँवाकर
विदा हो जाते
किंतु आता है कभी कोई
जो सृष्टि के उपकार में
काल की इस धार को
मोड़ देता है
जिसे पैग़ंबर महामानव
प्रतिभाधनी कहकर बुलाते हैं
हम इस तरह के लोग हैं
जिनमें नहीं कोई बलवती इच्छा
सीटी बजी तो चेत जाएँगे
वरन् बेकार घूमेंगे
ज़्यादा किया तो
कर लिया ख़ुश बीवियों को
और इस पर ही लगेंगे सोचने
अपने गुणों को
अगर कोई आदमी
सामान्य लोगों से चला आया
किए मन-कर्म का एका
कहेंगे—
'यह रहा राजा'
'ख़ुदा की देन है'
इस तरह की बात में पूरी तरह
होती नहीं है बुद्धिमत्ता
होती नहीं है मूर्खता
ये हवा में तैरती हैं भाप-सी
अर्थहीन अंडे के खोल-सी
ज़रदी-सफ़ेदी
दोनों से शून्य हो
प्राणों को भावना
हाथों को कर्मठता देने में व्यर्थ हैं
लेनिन के लिए कौन-सा पैमाना है
हमने सभी कुछ देखा है
सभी को पता है
उसने जीवन कैसा जीया है
वह 'युग' हमारे द्वारों से भीतर आया
लेकिन देहलीज से
उसका सिर नहीं टकराया
उसकी जाकिट
सामान्य आकार से बड़ी नहीं होती थी
फिर कैसे कहा जाएगा कि हमारा नेता
ईश्वर ने नियुक्त कर भेजा था
यदि वास्तव में वह
दैवी या राजसी होता
तो मैंने अपने क्रोध से
उसका विरोध किया होता
लंबे जलूस के आगे
स्वयं को पटक दिया होता
भीड़ पर आक्रमण करता
सारे प्रदर्शन को अस्त-व्यस्त कर देता
इससे पहले कि वे
मुझको और मेरी आवाज़ को कुचलते
मेरा अभिशाप
गंधकी आवेश की तरह फटता
और ईश्वरीय पाखंड को
दंभी प्रकाश के मुँह पर दे मारता
फेंकता क्रेमलिन पर बम
मुर्दाबाद के नारे लगाता
तब कहीं साँस लेता
कफ़न के साथ द्ज़ेर्झिन्स्की शांत है
नौकरी उसकी ख़तरे में आई है
चेका की छुट्टी हो सकती है
करोड़ों की आँखों में
साथ ही मेरी दो आँखों में
केवल आँसू चमकते हैं
गालों तक बह कर जो नहीं आ पाते
वरन् जम करके वहीं पर सख़्त हो जाते
ईश्वर आदी है अतिरंजित शब्दों का
जिनमें होती है चीख़-चिल्लाहट
या कि प्रशंसा
आज का दु:ख सच्चा है
हृदय टूट गए हैं
हालाँकि जमे हैं
आज हम इस धरा के
सहजतम संसारी पुरुष को
दफ़ना रहे हैं
सहजतम उन सबों में
जो यहाँ जीने
और मरने के लिए आए
संसारी
मगर उनसे भिन्न
जिनकी आँख अपने सड़े बाड़े में
गड़ी रहती
उसके विचारों ने
निखिल संसार को जकड़ा
चिर रहस्यों औ' असत्यों को किया नंगा
सामान्य-जन की आँख से जो दूर थे
यद्यपि हर तरह से वह
तुम्हारी और मेरी ही तरह था
भाल उसका उठ गया
मीनार-सा ऊँचा
चक्षुकोरों में विचारों से
गहरा गईं थीं झुर्रियाँ
होंठ उसके सख़्त थे
और व्यंग्य करते-से
मगर उसमें नहीं थी
तानाशाह की सख़्ती
विजय रथ-चक्र के नीचे
खींच वल्गा
जो कुचल देती
दोस्तों के लिए दिल में प्यार था
दुश्मनों के लिए वह फ़ौलाद था
संघर्ष करने को
उसके पास भी बीमारियाँ थीं
कमज़ोरियाँ थीं
शौक़ थे
हम सबों के पास हैं जैसे
आँख अपनी मैं जमाता हूँ बिलियर्ड पर
उसके लिए प्यारी बनी शतरंज थी
जो एक नेता के लिए है
बहुत उपयोगी
आँख अपनी हटा कर शतरंज से
ज़िंदा दुश्मनों पर नज़र डाली
कल तलक जो दास थे
बोल पाते थे नहीं
उनका रहनुमा बन
वर्ग-भेदों को मिटाने के लिए
तब तक लड़ाई की
मज़दूर तबक़ा ही न शासक बन गया
आदमी जो क़ैद पूँजी के क़िले में था
उस क़िले को ध्वस्त करके रख दिया
1. द्ज़ेर्झिन्स्की : आंतरिक-विभाग का जन-अधिकारी और लेनिन का प्रबल समर्थक।
2. चेका : सोवियत संघ में क्रांति विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए बनाया गया एक विशेष आयोग जो 1917 से 1922 तक रहा।
- पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 91)
- रचनाकार : व्लादिमीर मायाकोव्स्की
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
- संस्करण : 1975
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