सुबह का निकला
दिन भर में उधड़ा
लौटता लल्लापुरा होकर
बुनकर गलियाँ
बुन कर रख देती हैं
चलती राह
करघों की लयबद्ध खरखट्ट से
आगे-आगे
दुलकते दौड़ रहे हैं
बच्चे तीन
ज़री का भरम देती चमकीली पन्नी की पूँछ लगाए
बड़का मँझला छुटका—तीनों के तीनों हैं
बेटे सलीम इक्कावान के
साँझ करियाते सुस्ताता है जिनका इक्का घर के आगे
भूसा-चोकर का तोबड़ा लटकाए नतग्रीव घोड़े के पड़ोस में
रह-रह पूँछ हिला जो
उड़ाया करता मक्खियाँ दूर, बुलाया करता बड़कू मँझलू छोटू को क़रीब
अपनी अधेड़ ज़िंदगी के दायरे में
जब उसके पास थकान से ज़्यादा होता इत्मीनान
नोक्ते से आज़ाद—चितवने की सुविधा, मितवने का मन
खरहरे को आने से पहले झँगोले पर पीठ लंबाए सलीम के पीछे-पीछे
कि जिसकी नक़ल में
आगे-पीछे दुलकते दौड़ रहे हैं
ज़री का भरम देती चमकीली पन्नी की पूँछ लगाए
तीनों बेटे सलीम इक्कावान के
सलामत रहें
सड़क की तरह सामने खुलते भविष्य में
कि इक्का-दुक्का दिखते इक्के भले ही पोंछ दिए गए हों जहाँ से
बक़ौल निराला ‘मानव जहाँ बैल-घोड़ा’ होगा ही
—एक असीस उछलती है राह चलते भीतर से और हलक़ में अटक जाती है
- पुस्तक : संशयात्मा (पृष्ठ 263)
- रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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