लाधो रे!
ladho re!
मैं जिनके स्नेह की सूची में नहीं हूँ
उनकी झूठी मसख़रियों-सी ज़रूरत का निशाना हूँ
मैं समझता हूँ उनकी ठिकाने होने की विवशता
दबाने पर बढ़ सकता है, लोहा व चमड़ा तो
लेकिन इंसान के प्राण, सहृदयता
और शरीर की क़द-काठी नहीं बढ़ती
विश्वसनीय पौरूष को अपनी पहचान के लिए
असत्य की भ्रमित खाटों की चुग़ल भीड़ में
बकाले के भोरे से पड़ती है
किसी मक्खनशाही पहचान की शिनाख़्ती सूझ की
जब मुतलाशी खोज लेते हैं
तो लाधो रे की गूँज ज़रूर सुनाई देती है
लेकिन समय की गर्दिश के इस पड़ाव के वास्ते
बौने तमाशबीनों की थोथी निंदा को त्यागकर
सच्चाई की नई क़लम को
डार्विन की तरह इंतज़ार करना पड़ता है
चूँकि सभी विद्वान पारखी आँखें
ईर्ष्या के धुएँ में अंधी नहीं होतीं
अंततः गैलिलियो वाली दूरबीन की सच्चाई
ज्ञान में बरसात की पहली फुहार साबित होती है
राजमार्ग के निर्माण के लिए
पगडंडी दिखाने वाला पहला क़दम
साधना अपनी डगर पर गतिमय
निजानुभूति में चमकते-दमकते सत्य को
वॉन गाग-सी चित्रित करती चलती रहती है
अपनी पहचान-हीनता के संताप में
उसकी तरह ही प्रेमी को
कान काटकर भेजने पड़ते हैं
और गोली जिगर के पार करनी पड़ती है
शाहनामे की इज़्ज़त को अंततः
महमूद को स्वीकारना पड़ा था
भले फ़िरदौसी ही हिजब की नश्तरी पर ही सही
जब स्वाभिमानी बेटियाँ
महमूद अशर्फ़ियाँ स्वीकार नहीं करतीं
तभी पहचानी प्रतिभा रचती है इतिहास
प्रत्येक साधना को अंततः
उसका लाधो रे, मिल तो जाता है
लेकिन अपरिचय का अँधेरा तो ढोना ही पड़ता है
शातिर व रुंड-मुंड तमाशाइयों की आरियाँ
झेलनी ही पड़ती हैं
आँखों में जगी नींद
क्योंकि मैरी क्यूरी के नए जन्मे रेडियम की तरह
बिल्ली के बच्चे की आँखों-जैसी
अँधेरे के ढेर में भी जगमगाती हैं
सत्य विश्वास को एक दिन
पहचान, अस्तित्व की स्वीकृति
ज़रूर मिलती है।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 269)
- संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2014
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