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गाँव को विदा कह देना आसान नहीं है

ganw ko wida kah dena asan nahin hai

संदीप निर्भय

संदीप निर्भय

गाँव को विदा कह देना आसान नहीं है

संदीप निर्भय

मेरे गाँव! जा रहा हूँ दूर-दिसावर

छाले से उपने थोथे धान की तरह

तेरी गोद में सिर रख नहीं रोऊँगा

जैसे नहीं रोए थे दादा

दादी के गहने गिरवी रखते बखत

जनवरी की सर्द रात में टहलता रहा

देखता रहा घरों की जगी हुईं लाइटें

पर कहाँ दिखी मुझे

चाँद में चरख़ा चलाती हुई बूढ़ी दादी

सुनता रहा दूर से रही

सत्संग की मीठी आवाज़

इस बीच जानें कब चला गया था

बुढ़िया की टोकरी में चाँद

किसान के कंधों पर बैठकर

उग आया था सूरज धुंध को चीरता हुआ

किसानों के बच्चे खेतों के बीच

बनाएँगे भारत का मानचित्र

सँजोएँगे सरसों के फूल

धोरों पर लिखेंगे गड़रिए

अनकही प्रेम-कथा

गोधूलि बेला में लौट आएँगे सब

अपने आशियाने

जैसे रोज़ धोने पर लौट आती है

मज़दूर की बनियान में पसीने की सुगंध

गाँव को विदा कह देना आसान नहीं है

जैसे आसान नहीं है

रोते हुए बाबा के आँसू पोंछना

जैसे आसान नहीं है

बेरोज़गार का कविता करना, गीत गाना

रोटियाँ, चटनी और कांदों के साथ माँ

थैले में रख देती है

दो जोड़ी कपड़ों में तह करके आशा

पश्चिम की ओर मुँह कर

करती है तिलक

लगाती है चावल

थमा देती है हाथ में दस का नोट

कलाई पर आशीर्वाद की मोली बाँधती हुई

आख़िरकार माँ जब दे रही होती है

मेरे मुँह में गुड़ की डली

तो कुछेक चावल उतरकर

बैठते हैं फिर से

ज़िद्दी बच्चे की तरह थाली में

रह जाते हैं फ़क़त

दो-तीन चावल तिलक से चिपके हुए।

स्रोत :
  • रचनाकार : संदीप निर्भय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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