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क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?

kya hamare purwaj bandar the?

आश करण अटल

आश करण अटल

क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?

आश करण अटल

और अधिकआश करण अटल

    घर में पाते ही एकांत

    मैं रटने लगा डार्विन का सिद्धांत

    क्या हमारे पूर्वज बंदर थे,

    क्य हमारे पूर्वज बंदर थे?

    और जब मैं रट रहा था

    तब पिताजी अंदर थे

    वे आए और चिल्लाए—“ये क्या बकता है,

    पूर्वजों को बंदर कहता है?

    सोचा था पढ़ेगा-लिखेगा

    बाप-दादों का नाम रौशन करेगा

    नाम रौशन करना तो दूर

    उल्टे बता रहा है उनको लंगूर?”

    पिताजी ने खींचके एक हाथ दिया

    मैंने डार्विन साहब को याद किया

    कि आप तो मर गए

    मेरी जान को मुसीबत कर गए

    बंदर को पूर्वज मानूँ तो घर में पिटाई

    मानूँ तो स्कूल में धुलाई

    मैंने सोचा, सबसे पूछा जाए

    और फिर किसी नतीजे पर पहुँचा जाए

    मैंने पूछा अपने पड़ोसी से—

    “क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?”

    तो वे बोले—“तुम्हारे होंगे

    हमारे पूर्वज तो अगरवाल थे।”

    मैंने एक सिनेमा के दर्शक से पूछा—

    “क्या आदमी पहले बंदर था?”

    वह बोला—“था क्या, आज भी है

    विश्वास हो, तो

    इस फ़िल्म में हीरो को देख लो

    बंदर से दो क़दम आगे है

    अगर कपड़े निकाल दो तो पूरा बंदर है।”

    एक दिन दादाजी सायंकालीन

    आम के भयंकर शौक़ीन

    अपने एक मित्र राम दुलारे के संग बाज़ार को गए

    आम का दाम सुन

    राम दुलारे राम को प्यारे हो गए,

    दादाजी मुँह लटकाए, घर वापस आए

    मैंने दादाजी से पूछा—

    “क्या आदमी पहले बंदर था?”

    दादाजी बोले रोते-रोते—

    “काश! हम आज भी बंदर होते

    तो राम दुलारे, यूँ नहीं मरता

    किसी पेड़ पे चढ़ता, जी भरके आम चूसता

    बाज़ार जाता, भाव पूछता

    अगर बंदर होता तो राम दुलारे यूँ नहीं मरता!”

    मैंने पूछा एक चोर से—

    “क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?”

    वह बोला—“साहब!

    सिद्धांत तो यही कहता है

    लेकिन जो सिद्धांतों पर चलता है

    वह भूखों मरता है

    मुझे भूखों नहीं मरना

    बंदर को पूर्वज मानकर

    पुलिसवालों को नाराज़ मानकर

    अपने माई-बाप तो पुलिसवाले हैं

    अपन तो उन्हीं के पैदा किए हुए

    और उन्हीं के पाले हैं।”

    मैंने पूछा एक पुलिसवाले से—

    “क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?”

    वह बोला—“जी, हम तो सिपाही हैं

    जो कहेंगे, मान लेंगे

    पर आप ज़रा धीरे बोलिए

    दरोग़ा जी जाग जाएँगे।

    वे तो अपने बाप को

    बाप नहीं मानते

    बंदर को क्या मानेंगे

    उन्होंने सुन लिया

    तो आप और डार्विन

    दोनों को अंदर धर देंगे।”

    मैंने एक नेता से पूछा—

    “क्या आदमी पहले बंदर था?”

    वह बोला—“आदमी पहले बंदर था ये सही है

    पर लगता है तुमको हमारी

    पार्टी का इतिहास मालूम नहीं है

    हमारी पार्टी ने ही आंदोलन चलाकर

    बंदर को आदमी बनाया

    उसके बाद देश आज़ाद कराया

    बेटा, हमारी पार्टी के गुण गा

    हमारी पार्टी नहीं होती

    तो तू आज भी बंदर होता

    इस बार चुनाव जीत गए

    तो हम फिर एक आंदोलन चलाएँगे

    जिसमें बचे-खुचे बंदरों को आदमी बनाएँगे।”

    मैंने एक मदारी से पूछा—

    “क्या आदमी पहले बंदर था?”

    वह बोला—“देख भइये!

    हम आदमियों को बंदर से मुक़ाबला नहीं करना चाहिए

    कहाँ आदमी, कहाँ बंदर

    आदमी की आज क्या है क़दर

    मैं जगबीती नहीं—आपबीती सुना रहा हूँ

    घर की बात बता रहा हूँ

    मेरे एक बंदर जैसा बेटा हूँ

    और एक ये बेटे जैसे बंदर

    मैंने इसे नचा-नचाकर उसे पढ़ाया-लिखाया

    एम.ए. पास कराया

    तीन साल हो गए

    वो आज भी नौकरी के लिए मारा-मारा फिरता है

    और ऐसे में ये बंदर

    मेरे पूरे परिवार का पेट भरता है

    देख भइये, हम आदमियों को

    बंदर से मुक़ाबला नहीं करना चाहिए।”

    अंत में मैंने पूछा ओशो रजनीश से—

    “क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?”

    वह बोले—“प्रश्न सामयिक है, मज़ेदार है

    लेकिन एक बार बंदर से भी पूछकर देख लो

    कि क्या उसे आज के मनुष्य का

    पूर्वज बनना स्वीकार है

    वह इनकार कर देगा

    वह शर्म के मारे डूब मरेगा

    या कोई आदमी जैसा चालक बंदर रहा

    तो अदालत में मान-हानि का दावा कर देगा

    कि हुज़ूर, हम बंदरों की प्रतिष्ठा को

    मिट्टी में मिलाया जा रहा है

    इस भ्रष्ट और हिंसक मनुष्य को

    हमारा वंशज बताया जा रहा है

    मनुष्य होना एक दुर्लभ घटना है

    मनुष्य अभी मनुष्य नहीं बना है।”

    हर एक की बात ने मन को छुआ

    उत्तर तो नहीं मिला

    पर एक और प्रश्न उठ खड़ा हुआ

    अब मैं ये नहीं पूछता

    कि क्या आदमी पहले बंदर था?

    वो प्रश्न खड़ा है वहीं का वहीं

    अब मैं पूछता हूँ—आदमी

    आदमी भी है कि नहीं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 65)
    • संपादक : अरुण जैमिनी
    • रचनाकार : आश करण अटल
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
    • संस्करण : 2013

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