भोर हुई
उनींदी अँखियाँ
लिए बोरा चली
छोटी-छोटी उँगलियाँ
ना मंजन
ना नहाए
पहले जाकर पेट को कमाए
झुग्गी-झोपड़ी से निकल
कूड़े-कचरे से
उदर की आग मिटाए
बिन चप्पल पाँव
एक क़मीज़ बदन पर
मौसम से लड़ते हुए
चल दिए कमाने को
भो-भों कर आते
चार पंजे उनके पीछे
पर! दृढ़निश्चई खड़े रहते
कूड़े वाले बच्चे
भूख ने उन्हें
लड़ना सीखा दिया है
नसीब ना हो पाते अक्षर उनको
क्योंकि लगी है उनकी ज़िंदगी
कूड़े से मोती चुनने को
पड़ी इक रोटी को उठाने को
बोतल और डिब्बे को पाने को
लड़-मरते इक दूजे में
अपनी पेट की आग बुझाने को
हम तो निकलते हैँ
नथुनों पर रूमाल रख
पर वह इत्र बना
लगाते उसे अपने बदन पर
रोज़ खँगालते हैं अपनी क़िस्मत
सब्जियों के छिलकों के भीतर
मिल जाए जो फल का कोई टुकड़ा
तो रख लेते उसे संहेजकर
कूड़े वाले बच्चे
…क्योंकि व्यवस्था तो
भूखों को भूखा मारती है
प्यासों को प्यासा मरती है
और भरे हैं जिनके पेट
उनको और भरने का काम करती है
सत्ता तो अपनी सियासत करती है
उनकी साँसे बंद कमरे में दबाकर
नई नीतियाँ बनाकर
राम, अल्लाह पर झगड़े करवाकर
उनकी किसको पड़ी है
चार पायों के लोभ में
उनके अपने ही
उनसे छीन लिए जाते हैं
उनके ख़ून को पोछा जाता है
मखमली कंबल से
बना दिया जाता है
उन्हें दया का पात्र
पर पस्त नहीं हुए हैं हौंसले
अभी है नन्ही भुजाओं में बल
कर सकते हैं सियासत का विरोध
भर सकते हैं समाज का पेट
कूड़े वाले बच्चे
भोर हुई
उनींदी अँखियाँ
लिए बोरा चलीं
छोटी-छोटी उँगलियाँ।
- रचनाकार : मीना प्रजापति
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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