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कूड़े के ढेर पर बैठा देव

kuDe ke Dher par baitha dew

अविनाश

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कूड़े के ढेर पर बैठा देव

अविनाश

और अधिकअविनाश

     

    एक

    नहीं मिली उसे कोई जगह
    किसी भाषा की किसी कविता की किसी भी पंक्ति में

    जहाँ हो सकता था कि वह होता नायक किसी महाकाव्य का, या वह होता किसी नायक का पूजनीय नायक, जहाँ में और क्या क्या हो सकता था?

    उसे झुठलाया इन सहित्यविदों, आम जनों, और तो और सड़क के आवारा कुत्तों ने भी

    हर किसी ने उसके होने को उसका न होना माना
    यानी होने और न होने में कोई अंतर ही नहीं
    यानी वह है तो क्या, वह नहीं तो क्या?

    दो

    सड़क पर पीली रौशनी
    छिटक कर
    दूर कोनों तक फैली है
    पर छूटा हुआ है एक कोना
    जिस पर विराजमान हैं अँधेरे के देव
    नहाई हुई सड़क के मैल से बनी मूर्ति

    उसके क़रीब एक लाठी है, कुछ मैले कपड़े, और लच्छेदार भाषा जिससे निकलते हैं बोल ऐसे, जैसे खो गया हो किसी का सिक्का खनकता हुआ

    उसके भीतर कितना उजाला होगा, जिसके बाहर का सब कुछ घुप्प अँधेरे में बदला है, क्या यही है वह सोख़्ता, संन्यासी जिसे ढूँढ़ते हैं साधना में

    बाहर-भीतर के बीच की दीवार, टूटी है ऐसे जैसे थी ही नहीं, जैसे होगी नहीं कभी, जैसे होनी चाहिए थी ही नहीं, जैसे भूली हुई स्मृति आख़िर स्मृति कैसी

    तीन

    मेरी आँखों पर काला साया
    पड़ा यूँ जैसे ढूँढ़ती हुई कोई पुरानी-सी शर्ट
    निकल आई हो कपबोर्ड से
    चिपके बदन से; नाता निकल आए कोई

    फक्कड़ रंग में लिपा हुआ, सफ़ेद स्वाद-सा
    जैसे उसने मुझको और मैंने उसको
    किसी सपने में कभी, देखा हो, मिले ऐसे,
    लगे ख़्वाब ही तो था; धुल गया, घुल गया

    बँधी हुई हैं घंटियाँ, उसके बदन पर
    चोट करती, खंगालती रहस्य वह, छिपे
    उसके अंतर्मन, आवाज़ें निकलतीं
    दिव्य धुन-सी; समेटे हुए समूचे जीवन का राज

    चार

    शहर का शायद ही कोई
    न जानता हो उसे
    पर बातें उसकी हों कहीं पे
    व्यस्तता में इतनी फ़ुर्सत कहाँ

    जो कुछेक मन में यह उठे
    कि कौन है, कहाँ से वह
    उनके भीतर शर्म की एक नदी
    डुबो देती सभी संभावनाओं को

    पर नगर का संत वह है
    जिसकी करते वंदना—कुत्ते, जन और निर्जन सभी
    जिसके आगे सब निरर्थक—काम-धाम और पैसा

    पर नगर में एक सीधा-सा आदमी
    जिसके बदन पर छाले हैं उस सत्य के
    जिसने ख़रोचा है बदन, अपने युग के हर बुद्ध का

    कूड़े का ढेर—जो शहर के कृत्रिम मन की उपज है—उसपे बुद्धत्व को प्राप्त—एक देव अपनी आराधना में बैठा हुआ है।

    देखती नज़र जिसे—जिसकी नज़र को सब दिखे—बदन को नामालूम हों मन के दर्द—बदन की नीलियों पर जमा हो शहर का मैल।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अविनाश
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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