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कुछ याद कविताएँ

kuch yaad kawitayen

आलोक रंजन

आलोक रंजन

कुछ याद कविताएँ

आलोक रंजन

और अधिकआलोक रंजन

     

    एक

    एक शाम का धीरे-धीरे गिरना
    हवा में नारियल तेल के जलने की गंध
    कम होती रोशनी में भी चमकता लाल फूल
    यहीं देखा है : उन आँखों-सा सुंदर...
    पेरियार के किनारे बार-बार जाना
    उस भरपूर साथ की नरमी जैसा है
    सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते
    शाम की हवा
    कानों पर तुम्हारी हल्की फूँक-सी
    गुदगुदी वापस भर देती है
    नज़रें टिक जाती है नदी के बदन पर
    उम्मीद में
    तुम आओगी नदी के रास्ते ही
    अभी-अभी नहाकर निकली-सी
    यह चमत्कार अब तक नहीं हुआ
    वापसी में क़दम सुस्त ही होते हैं... 

    दो

    यह मैदान में पड़ी एक रात है
    पीछे स्कूल की पीली-सरकारी-मातमी रोशनी
    उससे भागना इसलिए भी ज़रूरी था कि
    उसमें दम तोड़ती है मुस्कान,
    वहाँ किसी की याद नहीं आती

    अँधेरा वह रास्ता है
    जहाँ तुम्हें रोक सकता हूँ
    कह सकता हूँ : दो-चार क़दम और चलो
    फिर थाम लूँगा तुम्हारे क़दम
    कुछ पोशीदा बातों के बाद
    तुम्हारी वापसी का रास्ता यही होगा

    मालूम है यह अँधेरा भी धोखा है
    पर यह सच है
    अबकी मिलेंगे तो
    कुछ यूँ भी मिलेंगे हम—
    रोशनी में छिपकर, अंधेरे में खुलकर...

    तीन

    शब्दों की धार के बीच हम-तुम
    डूबते-से बहे जा रहे हैं
    जैसे साँप से खेलता बच्चा
    ये जो इतने चेहरे हैं
    सब पर दिखता है
    तुम्हारे चेहरे की छाँह और
    होंठों का गहरा रंग
    जल्द से जल्द छीन लेने का अधैर्य
    बावजूद इसके
    पलकें, तुम्हारी पलकों पर ही
    गिरकर लेती है एक भरपूर आराम... 

    तुम कहती हो—'अभी नहीं एक और कोशिश करेंगे'
    पीछे के लोग पीछे हैं पर ठहरे तो नहीं
    आख़िर तुम भी इसी देश में हो
    जहाँ लड़कियाँ बैंक में बड़ी होती हैं

    शहर छोड़ने से पहले
    मिलना चाहिए था तुमसे 
    इसे समय पर छोड़ते-छोड़ते
    टालते जाने की आदत बन गई है मेरी
    अपने दरमियान
    कितनी डरपोक कमज़ोरियाँ हैं
    जो लाचार कर जाती हैं...

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोक रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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