सोलह की यह लड़की दो-तीन साल पहले तक
पेड़-पौधों पर रखती थी पाँव
जैसे तितलियाँ और मेंढ़क
घुमाती साइकिल के पुराने पहिए सरपट
जाती थी गाँव के एक छोर के मंदिर से
दूसरे छोर को काटती सड़क तक
रुककर बीच में सरकारी स्कूल के गेट पर
सुनने हमउम्र लड़कों का शोर
हँसती देखकर उनकी हाथापाई
या कभी काटकर भाग जाती सबसे छोटे लड़के को चिकोटी
या मुँह बिचकाते हुए लड़कों की बचकानी लड़ाइयों से कन्नी काट
निकल जाती बग़ल से चुपचाप
इस टोली में से कुछ लड़के चले गए महानगरों में कमाने
वे जब गाँव लौटते हैं
लेकर आते हैं विदेश के समुंदर की कहानियाँ
फ़ोन में अजब-ग़ज़ब कपड़े पहने लोगों की तस्वीरें
कुछ लड़के जो रह गए उसी देश
करते हैं तरीक़े-तरीक़े के काम—
ट्रक चालक, किसान, कारपेंटर…
और कुछ मोड़ की दुकान पर बैठ
कान लगाकर बटोरते हैं—
टोले-मोहल्ले की कहानियाँ
ताश की पत्तियाँ हाथों में लेकर
जब सबके संसार फैल रहे थे इधर-उधर
लड़की को कहा गया समेटने को अपने पैर
सोहल साल की लड़की
मेंढ़कों को
अपने आँगन और पड़ोस के दो दुवार छोड़कर
अब कहीं नहीं दिखती
झुके कंधे दो बार घुमाकर छाती पर लपेटा दुपट्टा
हमेशा बँधे बाल
मुस्कुराता-भावहीन चेहरा
इंतज़ार में है ब्याहे जाने के
कब जाएगी लड़की एक नई दुनिया में
कब तक पकाएगी भाई-बाप के लिए रोटियाँ?
उसने सुना है—
जवान लड़की का ब्याह दिया जाना
जीवन की सबसे बड़ी क़र्ज़-मुक्ति है
मायके आई सखी के हाथों में नई चूड़ियाँ देख पालती है उम्मीद
जो टूट जाती है कुछ दिनों बाद
जब वही हाथ उसके गले से टँगकर काँपते हैं
हिचकने लगती है सखी रोते-रोते
लड़की नहीं देखना चाहती बिदेश
नहीं जाना चाहती ससुराल
नहीं चाहती नए कपड़े
वह चाहती है कि कोई उससे एक बार पूछता—
‘आख़िर उसे चाहिए क्या’
याद करती है उस साल की बारिश
जिस साल वह हुई थी पंद्रह की
तालाब भरा है
मछलियाँ सुनती थीं
हर आते-जाते छोटे-बड़े लड़के मुँह से
अन्य अफ़वाहों के विपरीत
इस ख़बर का प्रमाण थीं असल मछलियाँ
जो हर शाम बाल्टी भर-भर लाता था भाई
गरई, औंधा और चाँदी के रेत-सी चोइंयों वाली सबसे छोटी-फुर्तीली धंधो
बरतनों के साथ उसके हाथ लौहइएना महकने लगे थे
लेकिन उसे मछलियाँ तलने के बजाय बैठकर देखना था—
जाल में कैसे आती हैं मछलियाँ
शायद देखते-देखते सीख भी जाती लगाना करंट-जाल
और डरती कि सब करते हुए अगर भूल जाएगी
छाती में बाँधना दुपट्टा
रखना नज़र नीची
बन जाएगी उस पल एक कुशल मछली-मार से
‘छिनाल’, ‘बेलगाम’, ‘पगलिया’
किसी अनजान गाँव के मर्द या परिचित रिश्तेदार या माँ से पड़ने वाली गालियों में
इसलिए वह बिना मछलियों, तितलियों, साइकिलों, सड़कों की बात किए
एक काल्पनिक सवाल के लिए सोचती है
एक झुँझलाहट भरा जवाब—
‘कुछ नहीं चाहिए फ़िलहाल…’
- रचनाकार : ऐश्वर्य राज
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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