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बोल, अबोले बोल

bol, abole bol

कुबेर दत्त

कुबेर दत्त

बोल, अबोले बोल

कुबेर दत्त

और अधिककुबेर दत्त

     

    एक 

    बोल
    अबोले बोल
    अबोले बोल।
    फँसे जो,
    भाषा के सँकरे
    भोजन-तलघर से लेकर
    भाषा की वर्तुल ग्रीवा में।
    गाँठ-गाँठ
    गठरी-गठरी में
    भाषा की ठठरी बजती है
    अर्थ-समर्थ
    अनर्थ
    हुए सब डाँवाडोल।
    बोल
    अबोले बोल
    अबोले बोल।

    दो

    तम से उपजा
    काल
    हुआ आपात
    उधेड़ा गात प्रात का
    वणिक चक्र से ब्रह्मचक्र तक
    काल काल आपात।
    काल चबेना राजकाज का
    जनता के अमाशय में जबरन ठूँसा जाता
    चुभता बनकर विष-शूल।
    कभी कलदार-खनक,
    दक्षिणा-दंड वह
    कुत्तों तक को नहीं हुआ मंज़ूर,
    हुआ मग़रूर...
    खोल, काल की ऐंठन खोल।
    बोल
    अबोले बोल, अबोले बोल।

    तीन

    मुर्दे घूम रहे।
    बस्ती में।
    सस्ती, सुंदर और टिकाऊ
    सरकारों का
    दंड-विधान लिए।
    प्रेत-बाध को कील, कवि!
    कर, सर-संधान प्रिय
    धर,
    मग में अब
    लौह-चरण
    सत्ता का उड़े मख़ौल।
    बोल
    अबोले बोल, अबोले बोल।

    चार

    शस्त्रों की
    खेती उजाड़
    भकुओं के भाषण
    फाड़
    स्वेद कणों की देख बाढ़
    भागें लबाड़
    लुच्चे, बैरी, कुटिल-क़बीले
    मुफ़्तख़ोर, साधु-कनफ़ाड़
    काट डाल सपनों के बंधन,
    तन-मन के।
    दाएँ-बाएँ उगी हुई जो
    खरपतवारी बाड़,
    ख़ूब चलें हँसिया कुदाल...
    सोने की हेठी के
    नाकों में लोहे की दे नकेल
    शोषक साँप-बिच्छुओं को
    धरती से नीचे दे ढकेल...
    शिशुओं का क्रंदन बंद करो कवि
    उनके आँसू का मंडी में लगे न कोई मोल
    दोहन का मिट्टी-गारा,
    श्रम-कर्म-संपदा को, हे कवि!
    पूरा-पूरा तोल
    बोल अबोले बोल
    अबोले बोल।
    परहित
    जनहित के ध्वज फहरें
    राजमहल पर, प्रासादों पर
    दहल-दहल जाएँ
    भूपतियों के क़ातिल संवत्सर
    स्वर्ण-बिस्कुटों की
    जाजम
    बिछ जाए वहाँ जनपथ पर।
    जनता के घायल पद-दल से 
    फूटें
    नव दिनकर।
    क्रांति-राग के सम्मुख हारे
    ख़ूनी शंख, ढपोल
    बोल
    अबोले बोल
    अबोले बोल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : काल काल आपात (पृष्ठ 142)
    • रचनाकार : कुबेर दत्त
    • प्रकाशन : किताब घर
    • संस्करण : 1994

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