कुआलालंपुर के पथ पर
kualalampur ke path par
हमने जाना चाहा था कुआलालंपुर—
हमारा चिर-आकांक्षित देश।
हमने सोचा था—
नूतन सूर्य
ज्योतित करेगा हमारे नयनों को
अभिनव पंछियों का सुर
फूट पड़ेगा हमारे कंठों में!
दालचीनी की अति मीठी गंध से बोझिल
दूर से आती हुई मद-मद वायु में
लौंग और इलायची का शीतल स्पर्श होगा,
पक्षीराज के काले पंखों की ओट में
ढँक जाएगा संपूर्ण आकाश
अपने सूरज चाँद और तारों को लेकर।
हमने सोचा था—
ज्वलंत उत्साह की दीप्त मशाल लेकर
जाएँगे कुआलालंपुर।
हम बढ़ रहे थे कुआलालंपुर के पथ पर,
पथ में गंभीर रात्रि अवतीर्ण हुई
अपना अज्ञात अंधकार लिए
अज्ञात लोक का—नक्षत्र लोक का
गोपन रहस्य लिए—
हम भयभीत हुए!
हम भयभीत हुए—
हमारे गड्ढों में धँसे हुए निस्तेज गाल,
मानो कंकाल के शरीर पर चादर मढ़ी हुई।
हमारे नयन-क्रोड़ में संचित है कितने युगों का अंधकार
तारुण्य के कितने विश्वासघातक हाहाकार में—
जरा के कितने निरुपाय क्रंदन में—
हमारे प्राणों के प्रवाह में
हृदयहीनता का शैत्य।
इसीलिए जब प्रभात अवत्तीर्ण हुआ
अपने अरुण आलोक का आश्वास लेकर
आकाश ने अपने पंखों से झरा दिए
अनेक सूर्य अनेक तारे अनेक ग्रह-उपग्रह—
अनेक चाँदों की मोम की भाँति गली हुई
ज्योत्स्ना की सुधा—
हम भयभीत हुए।
आई संध्या और ऊषा—अपना असीम आश्वास लिए
बुझ गई रात्रि अपनी अज्ञात-हवा में
डूब गया दिन अपने ज्ञात-समुद्र में
हम भयभीत हुए।
हम भयभीत हुए—हम स्फीत मानव
उसी क्षण जान सके
है कितना शून्य हमारा मन!
उसी घड़ी जान सके
है कितना खोखला हमारा जीवन!
हमारे नयनों में वह बाती कहाँ
जिससे नूतन सूर्य जला सके
अपनी अरुण शिखा?
हमारे कंठ में वह निनाद कहाँ
जिससे बज उठे अनंत की अगाध रागिनी?
लोभ के गलित शव पर
आसक्त है हमारी नाक
फिर क्योंकर पा सके वह
दालचीनी के प्रदेश की हवा का सौरभ?
हममें वह विश्वास कहाँ
जिससे भर सके समस्त शून्यता,
प्रेम की पूर्णता से!
इसी से हम जाते-जाते
कुआलालंपुर के पथ पर चलते-चलते
चौंककर रुक गए—
अविश्वास किया और भयभीत हुए।
हम भयभीत हुए।
संग-संग उतरी एक प्रेत की छाया
हँसते हुए नीलाकाश में
वज्र-विह्वल पिंगल मेघ-समान
उठ खड़ी हुई वह प्रेत की छाया,
सुदूर भविष्य के हमारे उत्तराधिकारियों के मुख पर।
ये सब—उसी पहिली और बाद की पीढ़ियों के
चले गए हमारे सामने से—
वे चले गए हमारे पीछे से—
वे लोग सूर्य को—प्रभात के प्रकाश को
सहज भाव से मोमबत्ती की भाँति
हाथ में लिए चले गए—
वे स्वप्नवत चले गए सुरभित वायु में
शरीर को मस्ती से हिलाते-डुलाते हुए
वर्षा से भीगी रात के कितने गान गुनगुनाते हुए
आनंदाश्रुओं के कितने शीतल हिमकण बरसाते हुए
चले गए रात के अतल रहस्य को आँखो में बसाए।
कितने सहज में उत्ताल काल-समुद्र के
उद्दाम तरंग-विभंग को पार कर चले गए—
हम भयभीत हुए—
क्या उस समुद्र-जल ने
अपने अपरिमित उल्लास से
अगाध कौतुक से
अपार ममती से
नहीं पुकारा हमें?
जिस प्रकार उसने पुकारा था पहिली पीढ़ियों को?
जिस प्रकार पुकारेगा बाद की पीढ़ियों को?
उदार रात्रि के विह्वल आकाश में
हमसे नहीं कहा क्या
अपने असीम रहस्य का अवगुंठन हटाने को?
क्या हमें नही पुकारा प्रमत्त वायु ने,
हमें नहीं दिया क्या
अज्ञात पुष्पलता विटपी के सौरभ का उपहार?
जिस प्रकार उन्हें दिया था
और दूसरों को भी देगा?
फिर भी हम दुविधा में पड़े रहे—हम भयभीत हुए,
क्योंकि हम हैं स्फीत—छूँछे मानव
हमारे निर्जीव मन में
है केवल एक कोरी शून्यता
हमारा जीवन है एक केवल खोखला जीवन!
कौन देगा हमें कुआलालंपुर का संवाद
कौन जाएगा हमारे साथ
कुआलालंपुर पथ का साथी हो?
हम जो छूँछे—रिक्त—शून्य हैं!
हमारे यहाँ की मिट्टी और वहाँ की मिट्टी के बीच
दरार पड़ गई है हमारे ही पैरों के तले,
हम जितना आगे बढ़ते हैं
इस दरार—इस खाई को पार नहीं कर पाते,
हमारे पांडुर गालों पर उस पार की हवा
सपनों-सी आकर लगती है,
हमारी गड्ढे में धँसी आँखों में
वहाँ का प्रकाश
सपनों की तरह दिपने लगता है,
और जब वहाँ की दालचीनी-युक्त हवा से
हमारी समस्त साधना समस्त वासना
तपस्या द्वारा प्राप्त फल की भाँति
उन्मुख हो उठती है
कविता में, चित्र में, गान में—
ठीक उसी क्षण मिट जाते हैं
संपूर्ण कविता, चित्र और गान
तनिक-सी हवा लगने से
क्षणभर को जल उठने वाली फुलझड़ी की तरह,
क्योंकि हम जो लेखक हैं
जो चित्रकार हैं, जो गायक हैं
हम सभी छूँछे हैं, सभी रिक्त, सभी शून्य हैं।
कुआलालंपुर वह एक सपनों का देश
वहाँ किसी भी दिन पहुँच नहीं सकते!
फिर भी वहाँ पहुँचने का सपना देखते हैं
चिरदिन ही!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 497)
- रचनाकार : उमादेवी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.