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कोरोना में वसंत

korona mein wasant

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

कोरोना में वसंत

वंशी माहेश्वरी

और अधिकवंशी माहेश्वरी

     

    एक

    वसंत
    उजड़े पेड़ों की टहनियों से
    उतरता है
    धरती पर
    गहरी शांति का कलरव
    बिछा है

    फूल
    मुरझाते खिल रहे हैं
    प्रलापों में खो गया
    पत्तियों का हरापन
    तितलियों के पंखों की उड़ान
    थम गई है
    उदास पक्षियों का आर्त्तनाद
    ख़ामोशी में डूब गया
    गिलहरियों की आँखों में
    पेड़ के सपने टूट गए हैं।

    वसंत!
    पक्षियों के मंडप में
    वीरान है।

    दो

    वसंत
    आकाश की सीढ़ियों से
    धरती पर उतरता है
    चतुर्दिक
    चीख़ों से भरा सन्नाटा है
    निस्तब्ध
    घरों की छतों पर मँडराते बादलों की
    कालिमा भरी है
    दूरियों को नापती सड़कें
    सुनसान में विचरती हैं
    भयभीत हवाओं में
    बेसुरा संगीत भरा है
    दुर्भाग्य की घनीभूत महिमा में
    नैराश्य के व्याकुल विन्यास में
    अमंगलकारी समय में

    वसंत

    मृतकों की जागती अंतरात्माओं में खो गया है।

    तीन

    वसंत
    उद्यान की ख़ाली बैंच पर बैठा
    उन व्यतीत दृश्यों की स्मृतियों में खोया
    जहाँ कभी
    बच्चों की निर्मल हरियाली बिछी थी
    हरे-भरे
    वृक्षों की आत्मा के खोखल में
    पक्षियों का बसेरा था।

    कितने ही
    घुमंतुओं के विचरते समूहों की मुस्कानों में
    शीतल शांत हवाओं में
    मिट्टी की सौंध घुली थी
    उन्हीं नील हवाओं की डबडबाई आँखों में
    अज्ञात कातरता
    तैरती है।

    वसंत
    जल भरी आँखों में
    प्रतिबिंबित है।

    चार

    पृथ्वी में
    ख़ौफ़ समाया है
    मौत की बारिश में नहाता
    वसंत
    भयभीत है
    अपनों से बिछोह के पथराए जीवन में
    घर के कारावास में
    आकाश का ज़ख़्मी टुकड़ा
    धूप की उजड़ी खिड़की में भर जाता है

    उम्र के साथ चलती
    उम्र की परछाई का अंत
    देख नहीं पाती आँखें,
    अस्पताल
    निष्ठुर ख़बरों का प्रिस्क्रिप्शन लिख देता है
    इम्तिहान लेती साँसें टूट जाती हैं।

    पाषाण पुतलियों के कोटर में
    जागती आँखों में
    वसंत!
    पत्थर हो जाता है।

    पाँच

    ये भीड़ नहीं
    मनुष्यों का सैलाब है
    इन्हीं हाथों ने बनाएँ हैं
    हमारे ऐशगाह
    छूट चुके घर इनके
    घरों से कातर पुकार पुकारती इन्हें
    सिर पर
    जीवन की गठरी सँभाले
    पैरों में छालों की आकाश गंगा लिए
    रास्तों से रास्ते पूछते
    रास्तों में रास्ता बनाते
    निहत्थे जत्थे बनाए
    मर चुकी मनुष्यता से बेख़बर हुए
    निकल पड़े हैं।

    वसंत
    निरीह आँखों में
    करुणा के कायर मर्म लिए
    छटपटाता है।

    छह

    मनुष्य नहीं
    संख्याएँ मर जाती हैं,

    संख्याओं के विराट ढेर में
    हथेलियों की लकीरें
    ढूँढ़ती हैं
    करुणा

    करुणानिधान
    स्वागत में बिछे पड़े हैं।

    वसंत!
    निर्जन मनुष्यों की दीवारें फाँदकर
    पलाश के फूलों में
    छिप जाता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
    • प्रकाशन : समालोचन

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