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कोंणबुडली

konnabuDli

रेखा चमोली

रेखा चमोली

कोंणबुडली

रेखा चमोली

और अधिकरेखा चमोली

     

    बचपन में जिस जगह जाने से करना हो मना 
    वहाँ के लिए कहती नानी,  
    “मत जाना वहाँ, कोंणबुडली रहती है!
    पकड़कर ले जाएगी अपने साथ”
    हम बच्चे कभी देख नहीं पाए कोंणबुडली को 
    लेकिन डरते रहे 
    बड़े‐होने तक भी 
    कोंणबुडली अपने काल्पनिक दाँतों नाख़ूनों लंबे उलझे बालों 
    और बच्चे पकड़ने वाले झोले के साथ हमारी नींदों में जब तब आती रही 

    बाद में लेकिन ख़ूब दिखाई दीं सचमुच की कोंणबुडलियाँ

    मेरे जीवन में आईं जो कोंणबुडलियाँ
    उन्होंने मेरे होने पर ख़ूब उत्पात मचाया 
    जी  भर सताया 
    लेकिन मुझे पीड़ा में घुलता देख अपनी गोद में छिपा भी लिया
    निकाल निकालकर अपने झोले से सुनाए मुझे 
    अपने बच निकलने के अचूक क़िस्से
    ये कोंणबुडलियाँ थीं या जीवन से आरपार की टक्कर लेतीं बाघिनें 
    रोज़ मरतीं, रोज़ अपने जीने की नई वजह के साथ ज़िंदा मिलतीं 
    इनके दाँत खुर हड्डियाँ गलकर गिर गईं थीं 
    कुछ तोड़‐दी थीं अपने परायों ने
    दाँत खुर हड्डियों के निषानों से ही बल मिल जाता इन्हें 
    “मरने से पहले मरा नहीं जाता” एक ने कहा मुझसे 
    जब किसी तरह पहुँच गई मैं उसके छिपे कोने में 
    बहुत मोटी और पुरानी कोई किताब पढ़ रही थी वह 
    कोंणबुडली और किताब!!! आँखें फाड़-फाड़ कर देखा मैंने चारों ओर
    किताबों से भरे कमरे में कोने पर लगा बिस्तर, बिस्तर के पास कुछ दवाईंयाँ
    लैंप, रस्सी पर टंगे दो जोडी कपड़े 
    घर के पिछली तरफ़ के इस कमरे में 
    लगभग छिपी हुई खिड़की से आती धुंधली रोशनी की पट्टी 
    इस पट्टी पर खुली किताब पर झुकी कोंणबुडली 
    दस साल की थी, जब मायके में ही पहुँची ख़बर पति के मरने की
    अपने कपड़ों के बदलते रंग, खाने की कमी और लोगों की नज़रों से जाना उसने 
    कुछ हुआ है ऐसा जो होना नहीं चाहिए था
    वो धकेल दी गई अलग-थलग 
    बना दी गई बेरूप और कहाई अपशगुनी 
    बचाते रहे माँ बाबा उसे इस उस की नज़रों से 
    बाद में ख़ुद ओनों कोनों में रहने लगी वह 
    बाबा ने उसे पढ़ना सिखाया और सौंप दी किताबों की दुनिया
    घर खेत जंगल गौशाला भाइयों के बच्चों को देखने के बाद बचे समय को वह 
    किताबों में बिताने लगी
    जान से प्यारे भतीजे भतीजियों के लिए कब कोंणबुडली बनी वह 
    उसे नहीं पता 

    एक दूसरी मिली बच्चों के लिए तरसती
    उन्हें गोद में लेने दुलारने के लिए तड़फती
    उसके पागड़े के भीतर हमेशा 
    गुड़ का टुकड़ा, टॉफ़ी या कोई मिठाई छिपी होती बच्चों के लिए

    एक और जिसका पूरा परिवार घर खेत छानी बह गए आपदा में 
    बची रह गई वह
    यात्रा गया बड़ा बेटा वापस नहीं लौटा
    वो दिन रात भूखी प्यासी रास्ते को ताकती बैठी रहती है
    हर आने जाने वाले से बेटे के बारे में पूछती

    उसे कैसे भूल सकती हूँ
    पति के मरने के बाद
    जिसकी अभी पेंशन भी नहीं लगी थी
    उसने अपने ही घर के आदमियों से बात करना 
    अचानक क्यों बंद कर लिया था?
    क्यों अपनी हँसी पर ताले लगा लिए थे?
    ये कोई अंतरिक्ष के सवाल थोड़े‐न थे 
    कि इनका जबाब घर की बाकि औरतों को पता न हो
    क्यों एक खिलखिलाती ख़ुशदिल युवती
    दिनोंदिन मुँहफट बत्तमीज़ हो रही थी 
    जिसके हाथ से कभी एक गिलास भी न गिरा हो
    चाय न उबली हो
    क्यों उसके हर काम में मीन मेख़ निकल रही थी

    एक दिन मज़ाक़ में कहा मैंने , क्यों कोंणबुडली को सताते हो? 
    तबसे वह चिढ़ाता मुझे कहकर  “कोंणबुडली”
    नहीं डरता मेरे झोले से 
    नहीं रुकता मेरे डाँटने डपटने सच्चे झूठे ग़ुस्से से 

    कहता, लाओ तुम्हारे झोले को थोड़ा झाड़ सँवार दूँ
    कितनी फालतू चीज़ें भरीं हैं इसमें
    चलो ज़रा धूप में 
    उतारो ये शाल टोपी ज़ुराबें मोटी
    धूप लगने दो हड्डियों को
    आओ तेल लगाकर सँवार दूँ ये रूखे सूखे बाल
    वैसलीन घिस दूँ फटी एड़ियों पर 
    अभी कहाँ तुम्हारे कोंणबुडली बनने के दिन

    अभी तो तुम्हें चढ़ना है पहाड़ की ऊँची चोटी पर 
    पैराग्लाइडिंग करते हुए जोर से चिल्लाना है
    मेरे साथ पीनी है रेड वाइन
    उलीचने हैं मन के सारे दर्द बाहर
    खोलनी हैं गाँठे जिन्होंने बाँधा तुम्हें तरह-तरह के खूंटों से

    थोड़ा और कमर कस लो मेरी प्यारी कोंणबुडली 
    सारी कविताएँ काग़ज़ पर ही लिखोगी क्या
    कुछ को ओढ़ बिछा भी लो 
    कुछ को झाड़ू की तरह पकड़ साफ़ करो घर की धूल धक्कड़॥
    ____________

    कोंणबुडली : बच्चों को डराने के लिए बनाया गया एक काल्पनिक डरावना पात्र, जो ओने कोने में छिपी रहती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रेखा चमोली
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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