कोयल को प्राण बेचना
koel ko paran bechna
कनिका हो या बिनिका
सनातन जहाँ भी तुम जाओगे सनातन ही रहोगे
बरगद पर झूलोगे यादों में खोओगे
सुबह उठकर कोयल की आवाज़ कान लगाकर सुनोगे
कोई अगर संत सुने तो तुम्हें कोई आपत्ति?
किसी अभक्त के अभियोग से
कब रुका है किसी कुल-देवता का रथ?
जाओ...जाओ...अपने दुःख को
पल्लू में बाँधकर ले जाओ अगर
कहीं कोयल से भेंट हो जाए
अपने दुःख को वहाँ उड़ेल देना
उसकी एक कूक से तुम्हारी
सारी अशांति दूर हो जाएगी
कुल देवता का ठप्पा लगाकर
जिसको जो संहिता लिखनी है, लिखने दो
मन या बेमन से
तुम्हारा क्या जाता है और
कोयल का क्या जाता है...
किसी आवेग में लकड़ियों का ढेर देखकर
तू क्यों आँसू बहाता?
कोयल की एक कूक में
सारे आम के पेड़ रोमांचित हो उठते हैं!
कनिका हो या बिनिका
कोयल को प्राण बेचकर भी
तुम वहाँ अपनी सत्ता को भूल जाओगे
सनातन! तुम कभी प्रतिशोध भी नहीं ले पाओगे
कभी भी नहीं ले पाओगे
तुम्हारी प्रतिहिंसा पसीना पोंछते ही चली जाती है
आम के मुलायम पत्तों को देखकर
तुम सारे दुष्ट आदमियों के चेहरे भूल जाओगे
समय मिलने पर संतों का स्मरण करना
तुम्हारा अभ्यास,
बस कहीं रुक जाने पर भिखारी को भीख देना,
तुम्हारा स्वभाव,
रास्ते से काँटे हटा देना,
तुम्हारा स्वभाव,
जहाँ भी जाओगे तुम सनातन रहोगे
बरगद पर झूलोगे यादों में खोओगे
कान लगाकर कोयल के स्वर सुनोगे।
- पुस्तक : ओड़िया भाषा की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 179)
- रचनाकार : प्रसन्न् कुमार मिश्र
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशंस
- संस्करण : 2012
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