ज्ञ
हिंदी वर्णमाला का आख़िरी अक्षर है यह
इसका अर्थ ज्ञान और ज्ञानी दोनों से जुड़ा है
यह बात अक्सर परेशान करती रही है मुझे
कि जिस शब्द को वर्णमाला में सबसे पहले आना चाहिए था
वह सबसे बाद में क्यों आता है
कहते हैं उमर गुज़र जाती है
बचकानापन नहीं छूट पाता
केश धवल होने के बाद भी
आदमी कर सकता है बेइंतिहा मूर्खताएँ लगातार
और अपनी पीठ ख़ुद ही ठोकने के करतब भी दिखा सकता है
साक्ष्य के तौर पर तमाम दस्तावेज़ भी पेश कर सकता है
चाहने से सब कुछ मिल जाता है
मगर ज्ञान नहीं मिल पाता
इतना आसान भी कहाँ इसका मिलना
तमाम डिग्रियाँ मिल जाती हैं
नाम पर उत्कृष्ट कोटि की कई किताबें छप जाती है
इनामात मिल जाते हैं
देश-विदेश घूम आते हैं लोग
संपन्नता छा जाती है
हनक आ जाती है
अहंकार छा जाता है
दूसरों को नीचा दिखाना आ जाता है
षड्यंत्रों का बारीक तार बुनना आ जाता है
तुनकमिज़ाजी आ जाती है
सचमुच, सब कुछ आ जाता है
मगर ज्ञान नहीं आ पाता
विद्या का मतलब दिखावे नहीं
विद्या का मतलब किताबें नहीं
विद्या का मतलब हमेशा चपर-चपर बोलना नहीं
विद्या का मतलब इन सबसे अलग भी होता है
कहावत भी है हमारे इलाके में
‘जरो विद्या बिना बुद्धि’
किताबों में लिखा हमेशा सच ही नहीं होता
किताबें भी अक्सर झूठ बोलती हैं
किताबें भी अक्सर हमें बहकाती हैं
कुछ किताबें तो हमें इतनी श्रद्धालु बना देती हैं
कि लकीर के फ़कीर बनकर ही ज़िंदगी गुज़ार देते हैं हम
कुछ किताबें इस तरह मूर्ख बनाती हैं
कि हमें थोड़ी भी भनक तक नहीं लग पाती
षड्यंत्र रचते हुए किताबें लिखी तो जा सकती हैं
विचार नहीं रचे जा सकते
किताबों को रचा आदमी ने ही
इसीलिए किसी भी लिखे को पकाना पड़ता है
अपने विचारों की आँच पर बारंबार
इसीलिए किसी भी लिखे में करना पड़ता है लगातार
सुधार...
कोई दैवी वरदान नहीं
दरअसल, अर्जित धन है यह मनुष्य का
मनुष्य की पीढ़ियों का
जिसे कर-करके
जिसे एक एक कदम चल-चल करके
जिसे पल-प्रतिपल मर-मर के
सीखा है आदमी ने
बहुत कम लोग जानते हैं
कि हमारे जीने में
तमाम अनाम शहादतें शामिल हैं
ज्ञान किसी ग़रीब को हो सकता है
किसी झोपडी में फल-फूल सकता है
किसी किसान की थाती हो सकता है
किसी सुजाता के खीर की प्याली में हो सकता है
पर किसी का हको हुकूक नहीं इस पर जन्मजात
इसे पाना होता है हमेशा नए सिरे से
अनुभवों में रचा-पगा होता है यह
इसे पाने के लिए
सीखना होता है
लड़खड़ाना होता है बार-बार
सहज होना पड़ता है माँ-पिता जैसे ही
गिर-गिर कर उठना होता है इसे पाने के लिए
अपमान सहना पड़ता है
असफलता का दंश भी झेलना होता है
इस ज्ञान के भरोसे आगे बढ़ती आई यह दुनिया
इसी के भरोसे आदमी हो पाया यह आदमी
अपनी टहनी पर मुद्दतों बाद खिला
चलते-चलते आख़िरी मक़ाम पर मिला
अब लगता है
ऐसे ही नहीं अंत में प्रतिष्ठित
हमारी वर्णमाला में आख़िरी अक्षर यह
इसे पाने के लिए तमाम शब्दों से पार पाना होता है
अक्सर लगता है कि
हमारी वर्णमाला का जो अंतिम अक्षर है
वह अंत नहीं
दरअसल एक आरंभ की शुरुआत है
- रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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