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गोरखबोध

gorakhbodh

बोधिसत्व

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गोरखबोध

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    गोरखनाथ की 'सबदी' की पुनर्रचना 

    एक

    क़ाज़ी, मुल्ला, नमाज़ी 
    क़ुरान से बँधे रहे
    ब्राह्मण बँधे रहे पोथी वेद-पुराण में
    गेरुआ पहनकर काँवड़िए संन्यासी
    भटकते रहे 
    एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ
    छूँछा जल-कलश भरते-छलकाते
    बीत गया छूँछ जीवन उन सबका
    निर्वाण भेद किसी के हाथ न आया
    मुक्ति का मंत्र किसी ने न पाया
    मानुष जनम सबने
    आडंबर में अकारथ गँवाया!

    क़ाज़ी मुलां कुरांण लगाया, ब्रह्म लगाया बेदं।
    कापड़ी संन्यासी तीरथ भ्रमाया न पाया नृबांण पद का भेवं॥ 

    गोरखबानी, सबदी-97

    दो

    देवता के दर्शन की 
    मंदिर की यात्रा शून्य की यात्रा है
    व्यर्थ आवन-जावन 
    वृथा माटी मूरत को शीश नवावन।

    तीर्थों की यात्रा 
    पानी की यात्रा है निष्फल।

    जाना है तो अतीत हो गए गुरु तक जा 
    पीछे छूट गए संन्यासी तक जा
    जो अजर अमर करने वाली 
    अमृत-वाणी बोलता है
    जो तुम्हारे अंतर में 
    गगन-गुहा का रस घोलता है।

    देवल जात्रा सुंनि जात्रा, तीरथ जात्रा पांणी।
    अतीत जात्रा सुफल जात्रा, बोलै अमृत बांणीं॥ 

    गोरखबानी, सबदी-98

    तीन 

    आसान है समझाना उपदेश देना
    दूसरे से करने को
    कहना
    किंतु कठिन है 
    उसी कहे अनुसार स्वयं रहना
    स्वयं चलना स्वयं करना। 

    थोथा है वह कथन जिसे न अपने
    ऊपर लागू करना
    खोखला है वह वचन जिससे
    राह न मिल पाए कोई।

    पढ़े गुने रट्टू तोते को खा जाती है बिल्ली
    ज्ञान व्यर्थ हो जाता है
    बचा नहीं पाता जीवन
    ऐसे ही गाल बजाने वाले पंडित के हाथ
    बची रहती है पोथी
    उसका व्यर्थ ज्ञान उसे मुक्ति नहीं दिला पाता
    योग नहीं करा पाता जल से जल का!

    कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।
    पढ़्या गुंण्या सूबा बिलाई षाया, पंडित के हाथ रहि गयी पोथी॥ 

    गोरखबानी, सबदी-120 

    चार 

    ईश्वर यदि रहता शरीर में तो
    कोई कैसे मरता भाई
    भला ईश्वर मरने देता किसी को?

    और यदि ब्रह्मांड में रहता होता
    वह देव कहीं
    आलय बनाकर तो देख न लेते सब लोग उसे

    मत्स्येंद्र का अनुचर
    गोरख कहता है भुजा उठाकर
    पिंड और ब्रह्मांड दोनों से परे है ईश्वर।

    बात अनोखी 
    परंपरा से हट कर कहता योगी
    मात्र पिंड और ब्रह्मांड से बँधकर
    नहीं रहता सदा ईश्वर!

    प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।
    प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास॥ 

    गोरखबानी, सबदी-71 

    पांँच 

    हिंदू देव गृह में ध्यान करते हैं
    मंदिर बिना उनका ठिकाना नहीं
    मुसलमान मस्जिद में
    सुमिरन करते हैं
    उनका और कोई दर नहीं
    किंतु योगी ध्यान करता है 
    उस पद का
    जो परम स्थान है
    जहाँ न मंदिर है, न मस्जिद है
    न प्रार्थना है न पुकार है
    न गुंबद है, न शिखर है, न मीनार है!

    योगी को कब कहाँ
    इन सबकी दरकार है?

    हिंदू ध्यावै देहुरा मुसलमान मसीत।
    जोगी ध्यावै परमपद जहाँ देहुरा न मसीत॥ 

    गोरखबानी, सबदी-69 

    छह 

    अति भोजन से मरो अति ज्ञान से मरो
    भूखे रह कर मरो और अज्ञान से मरो
    अति भजन से मरो
    मन जपन से मरो

    उपाय है एक
    अति का रास्ता छोड़ दो।

    न एकदम दाएँ चलो बेटा
    न एकदम बाएँ
    संयम से तरो
    न ज्ञान के अपच से मरो
    न अज्ञान की भूख से सूख जाओ। 

    निरंतर मध्यमार्ग पर चलो
    मध्यमार्ग में करो वास
    अति छोड़ने पर
    मन स्थिर और निश्चल श्वास!
    कहता यह मत्स्येंद्र का दास।

    षांये भीं मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहै पूता संजंमि हीं तरिये।
    मधि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर होइ सास॥ 

    गोरखबानी, सबदी-147 

    सात 

    झुंड और जमात से बचो
    अकेले चलो एकदम अकेले!

    न गुरु के पीछे चलो
    न चेले के आगे चलो

    अकेले चलो एकदम अकेले।

    सुनो गोरख कुछ कहता है
    रहस्य की सच्ची बात
    अपने ज्ञान ही को अपना गुरु करो
    अपने चित्त को बनाओ अपना चेला
    अपने मन को मित्र बनाओ।
    ऐसा गुरु ऐसा चेला ऐसा मित्र कहाँ मिलता है?

    ऐसे ही स्वयं बन अपना गुरु
    स्वयं बन अपना चेला
    बनकर अपना मित्र 
    रमता है गोरख अकेला!

    ग्यांन सरीषा गुरू न मिलिया चित्त सरीषा चेला।
    मन सरीषा मेलू न मिलिया,ताथैं गोरख फिरै अकेला॥ 

    गोरखबानी, सबदी-190 

    आठ 

    हिंदू राम के नाम का ध्यान करते हैं
    राम ही उनके परमात्मा हैं परम
    उनका ही आख्यान करते है
    मुसलमान ख़ुदा के नाम का करते हैं आख्यान
    वही उनका उपास्य है एक

    किंतु योगी जती
    अलख निरंजन के नाम का करते हैं आख्यान
    योगी के ध्यान में न राम है न ख़ुदा
    उस योगी की उपासना में
    राम और ख़ुदा विभाजित नहीं हैं
    उनका उपास्य राम और ख़ुदा रूप में
    चिह्नित नहीं है!

    हिंदू आषैं राम कौं मुसल्मान षुदाइ।
    जोगी आषैं अलष कौं, तहां राम अछै न षुदाइ॥ 

    गोरखबानी, सबदी-70 

    नौ 

    अपने मन में रहो
    अपने मन की बात व्यथा
    कभी किसी से न कहो। 

    कौन समझता है मन के रहस्य
    कौन उन पर करता है विश्वास।

    अमृत वचन बोलो
    मधुर मधुर!

    कोई तुम पर करे क्रोध तो भी
    अपना आपा क्यों खोना?
    कोई वाणी से आग बरसाए 
    तो तुम पानी की तरह हो जाओ

    निर्मल और प्रशांत! 

    मन मैं रहिणां भेद न कहिणां, बोलिबा अमृत बांणीं।
    आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पाणीं॥ 

    गोरखबानी, सबदी-64 

    दस 

    हँसिए खेलिए ख़ुश रंग रहिए
    जीवन में हरदम
    क्रोध से मित्रता
    काम-वासना से मिताई
    न करिए कभी
    मन में डेरा न हो इनका!

    हँसिए खेलिए आनंद के गीत गाइए
    किंतु अपने चित्त को
    दृढ़ता से संयत रखिए!

    संसार के सुख-भोग में
    अचंचल रहिए!

    हंसिबा षेलिबा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग।
    हंसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ करि राषि अपना चीत॥ 

    गोरखबानी, सबदी-7

    स्रोत :
    • रचनाकार : बोधिसत्व
    • प्रकाशन : सदानंद साही द्वारा संपादित पत्रिका 'साखी' के गुरु गोरखनाथ अंक में प्रकाशित

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