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किस मिट्टी के बने हैं पिताजी

kis mitti ke bane hain pitaji

महेश चंद्र पुनेठा

महेश चंद्र पुनेठा

किस मिट्टी के बने हैं पिताजी

महेश चंद्र पुनेठा

और अधिकमहेश चंद्र पुनेठा

    ठीक-ठाक पेंशन पाते हैं पिता जी

    ठाट से खा सकते हैं बैठकर

    ज़िम्मेदारियाँ नौकरी रहते ही पूरी कर ली सब

    दीदी की शादी तो बहुत पहले ही कर दी थी

    हम दोनों भाइयों की भी

    हम दोनों भी ठीक-ठाक कमा ही लेते हैं

    ऐसी भी कोई ज़रूरत नहीं कि

    अतिरिक्त श्रम करना पड़े उन्हें

    कुछ और कमाने के लिए

    पर पिता जी उसी तरह लगे रहते हैं आज भी

    जैसे

    घोर आवश्यकता के दिनों में

    सुबह उठकर गाय को नहलाना

    दाला-घास देना

    गोबर निकालना

    सूर्य निकलते ही बाहर बांधना

    दिन में उसको नहलाना-धुलाना

    घास-पानी देना

    लाख मना करने पर भी नहीं मानते

    नौले से ताज़ा-ताज़ा पानी भर लाना

    उनकी दिनचर्या में शामिल है

    फिर दो रोटी का नाश्ता कर

    खेतों की ओर चल देना

    बुआई-निराई-गुड़ाई-कटाई-मड़ाई

    जब जैसा काम हो

    वे सब अपने हाथों से ही कर डालते

    कभी किसी से नहीं कहते किसी काम के लिए

    नाहक परेशान करना लगता है उन्हें ये

    मुझे याद नहीं कभी उन्होंने

    हमसे किसी काम के लिए कहा हो

    अब बहुत हो गया पिताजी!

    यह आपकी आराम करने की उम्र है

    किसके लिए करनी है ये हाय-तौबाई

    पर वह एक नहीं सुनते

    हमारी और माँ की

    माँ कहती है—

    जैसे उन्हें अभिशाप मिला हो

    एक जगह बैठ सकने का

    बस चलते ही रहते हैं चलते ही

    जैसे दूरियाँ उनके पैरों के लिए ही बनी हों

    शहर आते हैं हमारे पास

    पल भर ठहरना जैसे मुश्किल होता है उनके लिए

    कहते हैं मेरा दम घुटने लगता है

    इन बहुमंजिली इमारतों के बीच

    आने से पहले ही

    चल पड़ते हैं गाँव की ओर

    आज तक नहीं समझ पाया हूँ

    आख़िर किस मिट्टी के बने हैं पिताजी

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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