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किन्हीं रात्रियों में

kinhin ratriyon mein

इला कुमार

इला कुमार

किन्हीं रात्रियों में

इला कुमार

और अधिकइला कुमार

    किन्हीं रात्रियों में

    जब अचानक हवा का वेग

    किसी ख़ास पगध्वनि के बीच लरज़ उठता है

    और मैं पोर्टिको के बग़ल वाली छोटी दीवार पर बैठी होती हूँ

    मोटे खंभे से पीठ टिकाए हुए

    बग़ल की क्यारियों में

    डायंथस की बैंगनी और गुलाबी पंखुरियाँ फरफराती हैं

    जरबेरा का मद्धम श्वेत पुष्प अपना मुँह

    पृथ्वी की ओर थोड़ा झुका लेता है

    मानो शर्म से

    उसी समय

    मेरे अंतर से जन्मती हुई आकांक्षा मुझे घेर लेती है

    जानती हूँ तुम्हें ये कान सुन नहीं पाएँगे

    इन आँखों की दृष्टि से परे हो तुम

    तुम

    मेरी समस्त इंद्रियों के महसूस से दूर हो जैसे

    ठीक इसी समय

    वह आकांक्षा साँप की तरह फहर कर लहरा उठती है

    तनकर खड़ी हो जाती है

    घास की नर्म हरी परत के ऊपर से लेकर

    वहाँ आर्द्रा स्वाति नक्षत्रों के बीच तक

    तुम्हें देखने महसूस कर पाने की अदम्य आकांक्षा

    अपने समस्त सुंदर कोमल भावों के साथ

    मैं

    यहाँ

    तुम्हारी प्रतीक्षा में

    तुम्हारा आना महसूस करने की यह स्वप्रतीक्षित बेला

    मुझे आमंत्रित करती है

    तुम दृष्टि से दृष्टव्य नहीं

    कानों से श्रोतव्य नहीं

    त्वचा से स्पर्श के घेरे से दूर हो तुम

    फिर भी

    कैसे

    किस भाँति

    तुम मेरे अंदर हो

    बाहर भी

    इस अनाम गंध से पूरित वायु की भाँति

    तुम मुझे चारों ओर से घेर लेती हो

    उसके बाद

    बिना भाषा

    बिना शब्दों के कहते हो

    यह मैं हूँ

    हाँ

    यही हूँ मैं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : इला कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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