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ख़ुसरो के नाम ख़त

khusro ke nam khat

कैलाश वाजपेयी

कैलाश वाजपेयी

ख़ुसरो के नाम ख़त

कैलाश वाजपेयी

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    जिसके पास अपनी उम्र का हिसाब नहीं

    दमे का मरीज़ एक पेड़

    चल पड़ने को तैयार है

    पृथ्वी से विदा होने को

    रुकी पड़ीं नदियाँ अवाक्

    कहाँ छोड़कर उन्हें

    चला गया बहाव

    हवा भी हताश—न कर पाने पर

    अपनी काया का कल्प रात रहते

    ख़ुसरो! क्या यही रही होगी वह रात

    जिसे होता हुआ जानकर

    तुम चुपचाप घर चले गए

    ख़ुसरो! तुम ठीक वक़्त पर घर चले गए

    अब तो दिन-रात

    रात ही रात है और कोई घर नहीं जाने को

    तुम्हारा वह मोतियों-भरा थाल औंधा

    जगह-जगह उसमें

    सूराख़ हो गए हैं

    जिसके नीचे हर आदमी

    चलता-फिरता एक मक़बरा

    सवार किसी ऐसे घोड़े पर

    जो जन्म से ही अनिरुद्ध है।

    ख़ुसरो! क्या सुनते हो?

    तुमने कहा था

    रैन से पहले इस देस में

    ‘वह खिला दे तो खिल जाऊँ

    या परास्त सिर्फ़ खेल-खेल में

    वरना मैं ठीकरा मिट्टी का

    मिट्टी खाता हुआ जाता नीचे, घिरा

    मिट्टी से हुआ भुईंधरा'

    ऐसा समर्पण तो ख़ुसरो!

    ख़त्म हो गया था

    तुम जैसे गुनियों के साथ

    अब तो हर शख़्स

    बिना मिज़राब का सितार है।

    तुम सही वक़्त पर

    अपने घर चले गए

    ख़ुसरो! तुम बड़े समझदार थे

    घर जाना नहीं चाहता

    लड़ रहा हर कोई

    वकील लड़ रहा है दुभाषिया

    नेता, व्यापारी, अहलमद, अपभ्रंश

    सारे के सारे वैज्ञानिक,

    अविद्या भरे

    काल के दलाल

    देश-देश के

    भेष बदल कलावंत, आरिफ़ अय्यार

    लड़ रहे

    घर जाने की युक्ति में मुब्तिला

    मैं पानी-पानी शर्म से

    मरजीवा मुक्ता शुक्ति का

    समझ नहीं पा रहा

    किस ज़ुर्म की सज़ा में मुझे

    कालापानी मिला।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भविष्य घट रहा है (पृष्ठ 24)
    • रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1999

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