ख़ुद से, ख़ुद का और ख़ुद की ख़ातिर
khud se, khud ka aur khud ki khatir
श्रीधर करुणानिधि
Shreedhar Karunanidhi
ख़ुद से, ख़ुद का और ख़ुद की ख़ातिर
khud se, khud ka aur khud ki khatir
Shreedhar Karunanidhi
श्रीधर करुणानिधि
और अधिकश्रीधर करुणानिधि
हर चीज़ की तरह
वक्त का भी अपना संविधान होता होगा शायद
अपने लिए वो वक्त माँगता हूँ
जो किसी भी शहर की मियाद में नहीं आता
नहीं आता रोज़मर्रा की किसी ज़रूरी ख़्वाहिश का
कोई एक मुकम्मल चेहरा
बस गाहे-बगाहे किसी भीड़ में
गुम होती स्मृतियाँ आ जाती हैं सामने
ऐसे कि अभी-अभी तो पहचान में
एकदम ताज़ा थीं वे आकृतियाँ, वे सारे ख़्वाब
फिर अचानक से वक्त की मुनादी हुई और
सब कुछ भूल जाना पड़ा
जैसे याद की पहचान जो बार-बार बारिश की बूँदों से
मिट्टी में कुछ ढूँढ़ने की कवायद से उठी ख़ुशबू का स्मृति भ्रंश हो
अवशेष भी ख़ूब जतन से लिखी गई
किसी कहानी की सभ्यता का भग्नावशेष होता है
जिसे मूल कर्तव्य की तरह सुरक्षित रखने का
एक नागरिक बोध
हमेशा माँगे जाते हुए अधिकार के सामने
खड़ा हो जाता है
और वहीं तानाशाही का प्रवेश होता है
और ख़ुद के लिए और ख़ुद की ख़ातिर के जनतंत्र में
वे सारी यादें
जेलों की कठोर चारदीवारी के भीतर ठूँसी जाती हैं
बहुत जल्दी-जल्दी...
- रचनाकार : श्रीधर करुणानिधि
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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