खोजो तो बेटी पापा कहाँ हैं
khojo to beti papa kahan hain
जब पापा के पापा के पापा के पापा
पापा के पापा के पापा नहीं थे
तब कोई नहीं था
कहीं पर नहीं था
सूरज यहाँ था
सूरज की बेटी धरती यहाँ थी
कैसा सबेरा जो देखे न कोई
धरती बिचारी इस चिंता में खोई
पापा के घर का ईंधन चले
न रोटी पके न दुनिया चले
धरती में धीरज था सूरज में आग
दोनों ने गाया जीवन का राग
धरती के मन में हिलोरें उठीं
पर्वत उठे नदियाँ बहीं हवाएँ चलीं
सूरज ख़ुश होता था
नए रंग बोता था
जब पापा के पापा के पापा के पापा
पापा के पापा के पापा नहीं थे
धरती का मन फूला न समाए
पेड़ उगाए फूल खिलाए
छोटा नहीं था धरती का मन था
इतना ख़ज़ाना लाखों का धन था
धरती के मन में इतनी बेताबी
कौन सँभाले तिजोरी की चाबी
तब पापा के पापा के पापा के पापा
पापा के पापा के पापा जी आए
मम्मी की मम्मी की मम्मी की मम्मी
मम्मी की मम्मी की मम्मी को लाए
गहरा अँधेरा
कैसे बनाएँ अपना बसेरा
कोई न घर था
पापा को डर था
ना देसी-विदेशी ना कोई पड़ोसी
ना चाचा ना मामा ना पापा की मौसी
सवेरा हुआ
सूरज का फेरा हुआ
चारों दिशाओं में शर्मीली धूप
पापा ने देखा धरती का रूप
रंगों का मेला पापा ने देखा
मम्मी ने देखा रंगों का मेला
पत्थर में पानी में
सुंदरता रंगों को
बड़ी कठिन भाषा थी
धरती के अंगों की
वैसे तो आफ़त थी
पापा में ताक़त थी
गुन-गुनकर, चुन-चुनकर
चुन-चुनकर, गुन-गुनकर
धरती की भाषा को पढ़ते गए
दुनिया नई रोज़ गढ़ते गए
गुण ही गुण थे
गुणों की खानें थीं
रूप सँवारे अपना अपना
गंध पसारे अपनी अपनी
रस को अपने अपने
कोई माँगे तो देने को आतुर
चारों तरफ़ प्राण थे
सभी रामबाण थे
जब दुनिया में नहीं था पूरन
धरती के नीचे था सूरन
पेड़ पत्थर और लताएँ
कथा अपनी ही सुनाएँ
कथा में क्या?
उन्हीं के गुण उन्हीं से पूछो
पूछना क्या?
पास जाओ—चखो, सूँघो
ज़रा छूकर देख लो
समझ लो सुन लो
और अपने लिए चुन लो—
मीठी किसी की खारी किसी की
तीखी किसी की भारी किसी की
नीली किसी की पीली किसी की
लाल गुलाबी नुकीली किसी की
न जीती किसी की न हारी किसी की
कहानी हरी थी
रस से भरी थी
स्वाद इतने चखें कैसे
याद इतनी रखें कैसे
पापा अकेली मम्मी अकेली
न कोई कहावत न कोई पहेली
न अक्षर न गिनती
करें कैसे विनती
भर भर जाएँ खोएँ अपना आपा
करें इशारे बोल न पाएँ पापा
पेड़ों पर पंछी के घर थे
सबके अपने अपने स्वर थे
सबके अपने अपने पर थे1
नील गगन में स्वर बहते थे
कुछ तो धरती पर रहते थे
इन्हीं स्वरों में अक्षर अना डेरा डाले थे
नई नई दुनिया थी किसके देखे भाले थे
मम्मी पापा ने मिल-जुलकर सबके स्वर अपनाए
अक्षर अक्षर जोड़-जोड़कर मन के शब्द बनाए
पूरे वाक्य बनाकर बोले
कई तरह के छंद बनाकर गा-गाकर वे डोले
दोनों ने मिलकर पहचाने सब चीज़ों के काम
दोनों ने मिलकर रच डाले सब चीज़ों के नाम
दोनों प्राणी अब तो भाषा-पथ के राही थे
कमी नहीं थी उनको इतने मिले पेड़ स्याही के
काग़ज़ के पत्ते उन तक उड़-उड़कर आते थे
उनके मन में जो था उसकी लिखते जाते थे
अब पापा के पापा के पापा के पापा
पापा के पापा के पापा नहीं हैं
सूरज यहाँ है
धरती यहाँ है
खोजो तो बेटी पापा कहाँ हैं
पापा से पूछो
पापा के मन में क्या रहता है
मन ही मन में
मन ही मन से
मन की कुछ कहता है
अगर कभी तुम पापा को खोया खोया-सा देखो
उनके भीतर कुछ जागा-सा कुछ सोया-सा देखो
पापा के भीतर खोए पापा को खोज निकालो
मचाओ तो हल्ला—पापा कहाँ हैं
सूरज यहाँ है
धरती यहाँ है
हल्ला मचाओ पापा कहाँ हैं।
- पुस्तक : खोजो तो बेटी पापा कहाँ हैं (पृष्ठ 95)
- रचनाकार : ध्रुव शुक्ल
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 1989
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