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ख़तरा : कुछ नोट्स

khatra ha kuch nots

प्रदीप सैनी

प्रदीप सैनी

ख़तरा : कुछ नोट्स

प्रदीप सैनी

और अधिकप्रदीप सैनी

    ख़तरा कैसा भी हो

    इतना नया कभी नहीं होता

    इतिहास में कि उसका ज़िक्र मिले

    पहचान कर पाना लेकिन

    मुश्किल ही होता है हर बार

    ख़तरा बहरूपियों की तरह बदलता है रंग-ढंग

    फिर बाज़ार की हज़ार ख़ामियों के बावजूद

    ये बात तो है ही कि यहाँ

    हर चीज़ कई रंग-रूपों में होती है उपलब्ध

    इस वक़्त जब ज़्यादा जानकार होते हुए

    कम समझदार होती जा रही है दुनिया

    सबसे ज़रूरी हो गया है

    ख़तरा पहचान लेने का हुनर

    यूँ तो कहीं भी मौजूद हो सकता है वह

    संभावनाएँ कम ही होती हैं वहाँ

    उसके होने की जहाँ

    लगाई जाती हैं अटकलें

    उस पर नज़र रखने के लिए

    वहाँ ग़ौर से देखना चाहिए

    जहाँ से खड़े होकर

    बार-बार दूसरी तरफ़ इशारा करता है

    उसे पहचान लेने का दावा करने वाला विशेषज्ञ

    उस आवाज़ में भी हो सकता है शामिल वह

    उसके बारे में बड़ी एहतियात से जो

    कर रही है दुनिया को आगाह

    वह लगातार बदलता है डेरा

    फ़िलहाल ख़बर है कि उसने अपना रुख़

    सबसे पवित्र माने जाने वाले

    ठिकानों की ओर कर लिया है

    और सबसे बड़ा ख़तरा

    नहीं ढूँढ़ना होता है इधर-उधर

    वह हमेशा भीतर ही छुपा होता है

    कविता के ज़िक्र बिना

    नहीं हो सकती ये बेतरतीब बातें पूरी

    कम ख़तरनाक नहीं होती कविता वह

    लिखता है जिसे एक सुरक्षित कवि।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रदीप सैनी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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