खालीपन पसरता है

khalipan pasarta hai

तृषान्निता

तृषान्निता

खालीपन पसरता है

तृषान्निता

और अधिकतृषान्निता

    एक खालीपन है,

    जो पसरता है।

    पसरता ही रहता है!

    मैं भागती हूँ उस ओर

    उसे भरने को,

    कि देखती,

    कहीं और,

    कुछ और,

    खाली हो गया है!

    दूसरा खालीपन पसरता है...

    अब इस दूसरे को भर देने की

    ललक जगती है।

    कि देखती पहली में,

    फिर खालीपन पसर रहा है!

    अब?

    अब,

    मैं दौड़ती रहती

    दो ध्रुवों के बीच।

    कि पता चलता,

    दो ध्रुवों में ही फँस कर रह गई!

    बीच का सब कुछ, सभी कुछ

    खाली ही तो रह गया!!

    मैं अब चक्कर लगाती

    उस बीच के खालीपन में,

    उन्हें भरने की ख़्वाहिश में।

    पर

    ध्रुव छूट जातें,

    और वहाँ फिर से

    खालीपन पसर जाता है!

    मैं दौड़ती रहती हर ओर

    सभी खालीपनों को भरने को।

    पर

    कुछ कुछ छूट ही जाता है!

    कहीं कहीं,

    खालीपन रह ही जाती है—

    पर

    ये खालीपन अच्छे हैं!

    किसी मृगतृष्णा की तरह

    दौड़ाते हैं अपने पीछे।

    एहसास दिलाते रहते

    कि 'दौड़ते रहना है,

    इसलिए कि,

    पूर्ण नहीं हो तुम!

    तुममें अब भी

    बहुत-सा खालीपन पसरा हुआ है'।

    स्रोत :
    • रचनाकार : तृषान्निता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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