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ख़ाली कमरा

khali kamra

नेमिचंद्र जैन

नेमिचंद्र जैन

ख़ाली कमरा

नेमिचंद्र जैन

और अधिकनेमिचंद्र जैन

    तरह-तरह के सामान का बोझ लादे

    किसी ठिकाने की तलाश में

    चलते-चलते

    वह आख़िर एक कमरे के आगे

    जा खड़ा हुआ

    बंद किवाड़ों को धकेला

    तो द्वार खुल गया

    बिल्कुल ख़ाली था कमरा

    या शायद व्यतीत की कुछ गंध थी

    हल्की-हल्की आहटें

    सरसराहटें

    बनती-मिटती छायाएँ भी थीं शायद

    पर कुल मिलाकर

    कमरा ख़ाली ही था

    जाने क्यों उसे लगा

    यहाँ वह अपना बोझा उतारकर

    रख सकता है

    उतावली में वह भीतर घुसा

    और गठरियों को खोलकर

    अपना सामान

    इधर-उधर सजाने लगा

    सामान क्या

    तरह-तरह के काग़ज़ों के ढेर

    पुरानी पत्रिकाएँ

    जिनके पन्ने पीले पड़कर

    टूटने लगे थे

    पता नहीं उनमें

    किस ज़माने की दास्तानें थीं

    अख़बारों की कतरनें

    पुरानी पड़ चुकी थीं जिनकी ख़बरें

    और उनमें किसी की भी

    क्या दिलचस्पी हो सकती थी

    फ़ोटोग्राफ़

    गुज़रे लोगों के

    चेहरे छिपाते-दिखाते

    मुँह बनाते-बिगाड़ते

    जो नहीं थे वही बनने या दीखने का

    बहाना या छल करते

    इनके अलावा

    कुछ पतले फ़ीते भी थे

    जिन पर आप-बीती सुनाते

    या दूसरों से बहस करते झगड़ते

    या सभी को ख़ारिज करते

    बातूनी लोगों की आवाज़ें

    चिपकी हुई थीं

    ऐसी ही और भी कई क़िस्म की

    चीज़ें थीं

    जाने कैसे ख़ब्त में

    जमा करके बचाकर रक्खी हुई

    जिन्हें वह अब

    उसी ख़ाली लगते कमरे में

    सजाने में व्यस्त हो गया था

    अपनी आत्मलीनता में

    लगभग बेख़बर

    ज़माने से लोगों से वक़्त से

    ख़ुद अपने-आप से

    जैसे यही आख़िरी पड़ाव हो

    ऐसे में ही एक दिन

    कमरे के दरवाज़े पर

    खड़ा हुआ

    एक और आदमी

    और बोला

    ख़ाली करो यह जगह

    मेरी है यह

    मैं मालिक हूँ इसका

    यों भी कोई जगह

    वह किसी की भी हो

    चाहे तुम्हारी ही

    हमेशा टिकने

    टिके रहने के लिए नहीं होती

    ख़ाली करके जाना तो होता ही है

    सामने वाला आदमी

    बड़ी लाचारी से

    फटी-फटी आँखों देखता रहा उसे

    जो अपने को मालिक बताता था

    इस जगह का

    पर ठीक से कुछ कह सका

    थोड़ा-बहुत बुड़बुड़ाया ज़रूर

    मगर

    सामने खड़े आदमी की दबंग आवाज़

    तेज़ पैनी निगाह

    और बेमालूम-से व्यंग्य में बुझी मुस्कान का

    सामना कर सका

    बस जैसे किसी मंच या यंत्र से चालित हो

    उठकर

    अपना सामान बटोरने लगा

    एक-एक करके कई

    छोटी-बड़ी गठरियाँ बन गईं

    जिन्हें उसने अपने कंधों पर

    लाद लिया

    और धीरे-धीरे

    दरवाज़े से निकलकर खड़ा हो गया

    चल पड़ने को

    ठीक वैसे ही

    जैसे बीते किसी दिन

    वह अचानक वहाँ

    खड़ा हुआ था

    कंधों पर तरह-तरह के सामान को

    बोझ लादे

    किसी ठिकाने की तलाश में

    कमरा सामने

    आज भी वैसा ही

    या शायद कुछ और तरह

    ख़ाली था

    जीवन की अन्य कुछ गंधों की

    दूसरी आहटों-सरसराहटों की

    नई-नई परतें

    वहाँ चिपकी टिकी रह गई थीं

    चलते हुए उसे लगा

    वह स्वयं भी

    कुछ हल्का हो गया है

    कुछ रीता

    या शायद छिला हुआ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अचानक हम फिर (पृष्ठ 65)
    • रचनाकार : नेमिचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1999

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