कविताएँ आई हैं
kawitayen i hain
बादलों से छँटकर
धूप और धूप की गंध और गंध के उड़ते आइनों से
उतर कर
कविताएँ आई हैं
मेरे पास।
सादा लिबास
लटें, जिनमें मुद्दतों से तेल नहीं पड़ा था,
आँखों के घेरे, जहाँ शाम का झुटपुटा
डूबने के पहले ज़रा काँप गया था,
ओठ,
और ओठों के पीछे एक सवाल की किताब...
पहले तो मैं पुलका
जैसे वर्षा के पहले कोई तन्हा पत्ती,
फिर वह पुलक ख़ूब भीतर जाकर
और कई विचित्र से संवेदनों में डूब गई,
डूब गई और मैंने जाना कि ये तो दुनिया है :
मोम की नदी है
और नदी के किनारे धीमी आँच सुलगता हुआ राग है
और वहाँ मैं नहीं हूँ,
जैसे पानी नितर जाने के बाद औंटा हुआ आसमान तो हूँ
खुली हवा नहीं हूँ।
सवाल जब सब हल हो जाएँगे तब क्या होगा?
ओठ होंगे शायद
और उनकी धूप, गंध और उड़ते आइनों पर
एक दुखी और हठीली परछाईं
सिलसिलेवार कई परछाइयों से बनी
गोद में एक बड़ी-सी रात लिए
जिसका मैं पड़ोसी हूँ।...
हल्की और तेज़ पदचाप करती हुई इन परछाइयों के
अर्द्ध-चेतन अहसासों में
कोई क्षितिज खटखटाने को अनायास
उठ गए हैं मेरे हाथ
कोई जल-बिंब पकड़ने में कभी
खुल गई है निर्भय-आँख
और पीड़ित-कुहराम से छिटक कर, दूर,
तना रह गया हूँ,
जैसे बोलने को भोर का गूँगा-एकांत
...ऐसे में ही कविताएँ
आई हैं
मेरे पास।
- पुस्तक : ज़ख़्म पर धूल (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : मलयज
- प्रकाशन : रचना प्रकाशन
- संस्करण : 1971
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