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कविता के बहाने

kawita ke bahane

मानबहादुर सिंह

मानबहादुर सिंह

कविता के बहाने

मानबहादुर सिंह

और अधिकमानबहादुर सिंह

    नहीं मिली मुझे कविता

    किसी मित्र की तरह अनायास

    मैं ही गया कविता के पास

    अपने को तलाशता—अपने ख़िलाफ़

    कविता जैसा अपने को पाने!

    आँधी के पहले ललौंछ आकाश

    हुमशता चुप सनाक्...

    जर्जर छज्जे की सूराख़ से

    लाल गोलियाँ धूप की छेदती दीवार

    मेरी आत्मा को हर ले गईं

    हहराते आगत के पास मेरे पार

    उस मेरे से—जहाँ ठहरी हुई एक चुप्पी

    सुन रही कुछ आता हुआ—पहुँचता हुआ

    एक उमड़ी आस

    झकझोरने ‘है’ को—लाती हुई

    कविता का विश्वास।

    आँधी नहीं है मेरा लक्ष्य

    जमे विशाल दरख़्तों मकानों मीनारों को

    ढहाना ही नहीं है मेरा पक्ष

    मेरा पक्ष तो धूल-धक्कड़ भरे

    उस उत्पात के पीछे उड़ता रहा

    वह बीज है, बरसात है, मैं हूँ

    इस समूचे के ऊपर अँखुआता वह समूचा है

    जो मेरी कविता में हाहाहूत सोच की

    आकुल बिजलियों पर बादल की तरह बढ़ता है...

    इस इंतज़ारी से उबरने को बीच में

    मै ही उठ के गया उसके पास

    उसके वेग से कंकड़ियों की तरह

    छूटते हैं शब्द टूटते हैं चरमर

    व्याकरण के बेढ़

    भाषा एक उजड़ी वाटिका-सी दिख रही

    किंतु विश्वास है वह रख जाएगी

    वह बीज लघुतम

    गिरी सूखी पत्तियों के तले

    माटी की कोख में

    फिर से सजाने धरती का छिन्न बदन

    फूलदार तकिया की तरह

    विलासी सपने जगाने नहीं पाई कविता

    यात्रा में उठा झंझावेग रह-रह कौंधता है

    भवितव्य का विस्फोट

    धुलियाता घटाटोप बढ़ता चला आता

    निश्चित उगेगा संभावित सूर्य

    उस सुबह में जिसके लिए

    अँधेरी ज़िंदगी से मैं गया हूँ

    रोशन कविता के पास

    नहीं मिली कविता मुझे शृंगार की तरह

    मिली है तन ढँकने की ज़रूरत जैसी

    नंगे संस्कारों का कफ़न बनती

    मेरे बाद के जन्मों को सजाने की

    क़सम लिए

    वह कभी नहीं आई मेरे पास

    प्लेटफ़ॉर्म पर रेलगाड़ी की तरह

    मैं ख़ुद ही गया हूँ उसके पास

    अपने तक पहुँचने के लिए

    तोड़ने अपना वह जिसमें एक दंभी मीनार

    मेरी उम्र की लंबाई को

    अपनी ऊँचाई से तानती खड़ी है

    इस आँधी से बेख़बर।

    तुलसी के हनुमान चालीसा से शुरू हुई

    जिसका लंगूर सुरसा-सा बढ़ता रहा चढ़ता रहा

    मन के आकाश में कमंद-सा

    मांस में ‘मतिराम’ और बिहारी का रसराज पीये

    आहों में पंत और ‘प्रसाद’ के

    दुखते पिराते दर्शनशास्त्र का

    अमूर्त एहसास लिए

    ‘बच्चन’ की नर-मादा कविताओं से होता हुआ

    ‘नई कविता’ की धुपैली छाँहों के

    गुलाब बन से जीवन की बबुराही को

    डाँटता-फटकारता रहा

    ये मेरे ख़ाली क्षणों की तितलियों के

    स्मृति पंख थे जो उस मीनार की

    नक़्क़ाशियों को सहलाते-सजाते रहे

    पर नहीं थी मेरी अभिव्यक्ति वह

    जले-बुझे दिनों की जो अपनी राख में

    मेरी आँखों में किरकिराती रही

    चुनौतियों के बीहड़ में भटकी हुई थकान

    नहीं विलमाती है अपना यात्रा

    छुईमुई कविता की छाँह

    फिर भी वह सारा भूत मैं था

    ख़ुद से भयभीत त्रस्त

    खोजता अपने से बच निकलने की

    कोई सामूहिक राह

    क्योंकि अकेली राहें गुफाओं तक

    जाती हुई देखी गईं जिसके बाद

    नहीं मिले हैं—कोई पदचिह्न

    वहाँ से लोगों के उबरने के

    उदासी को सूखी पँखुड़ियाँ सूँघती

    नहीं आई कविता कभी मेरे पास

    मैं ही गया उसके पास

    लिए अपने सूखे बबुर बाँस घास पात

    जंगल के जंगल आघात अट्टहास

    सौंपने उस आँधी को

    जो आए और उजाड़ दे—मेरी चेतना के

    तितली पंख भर जाए घहराती प्रकंप

    उस पृथ्वी में सटी है जो दिगंत से

    जहाँ ‘निराला’, ‘मुक्तिबोध’, ‘धूमिल’

    सरीखे बंधु जूझ का जीते थे द्वंद्व...।

    नंगे पाँव फटेहाल भूखा प्यासा

    अपने ज्वलंत में गया उस ध्वंसकारी

    भविष्य के पास

    माँगने गोली सरीखे शब्द

    छेदने हत्यारों के अर्थ

    जो छिपे चले आए हैं अतीत का गर्त लिए।

    नहीं रहे राम कृष्ण देवी देवता

    यो कोई पीर पैगम्बर

    जिन्हें सौंपता अपनी यातनाओं की मार

    बार-बार ख़ुद से पूछता प्रश्न

    जब भी उमड़ा उसे प्यार

    किसी भिखमंगे की फैली हथेली देख—

    भीख चिखा दूसरे की भूख हज़म करने वाली

    दया नैतिकता जाने क्यों लगी है मुझे

    हत्यारी क्रूर

    नहीं मिली है मुझे कविता

    फ़ुर्सत की तरह सजने-सँवरने का

    प्रसाधन बनी

    मैं ही गया हूँ उसके पास

    जैसे भूख जाती है रोटी के पास

    फ़िल्मी नखरों की तरह

    दुख कभी गानों में गाया गया

    चुप रहा या चीख़ा-चिल्लाया

    नोचता भाषा का सिर

    यह नहीं कि अपना हाथ सौंपता हूँ

    मैं कविता को

    कविता नहीं बनेगी हाथ मगर

    माथे की रेखा उसकै प्रकाश में बाँचता रहा

    कविता के पिंजड़े में हाथी हुए फोड़ों का

    दर्द लिए आँधी तक दौड़ा हूँ

    कि जंगल ढहाने में आँधी के साथ

    इस अनुभव को छोड़ दूँ—कोंच दूँ

    कि वह भी शरीक हो बिगाड़ने-बनाने में।

    उसके गजदंतों को गड़ाए मीनार पर

    दंभी स्तंभों पर जुटा हूँ डटा हूँ

    फिर भी पता है कविता की आँधी से

    छूटे हुए शब्दों के कंकड़-पत्थर

    नहीं तोड़ पाएँगे पुख़्ता दीवारें इतिहास की

    जब तक चिंघाड़ता उठेगा

    अंतिम भूकंप श्रमरत हाथों का

    छैनी हथौड़ा लिए...

    लेकिन उस तक पहुँच पाने तक

    वार आजमाने तक

    अपने को पँहटने कविता तक गया हूँ

    जिससे बेचैन इंतज़ारों का

    आंदोलित मन कहूँ क्योंकि एक दिक़्क़त है

    पिंजड़े में हाथी-सा सँभाल पाने की

    —सुलगता-उबलता एक अनुभव संसार।

    नहीं बँध पाता किसी भी नाज़ुक कला में

    किसी भी व्याकरण की रेशमी दीवार

    हड़बड़ अकुलता बिफरता है

    हाथी की तरह कदली वन की छाँव।

    टूटती है कला टूटे

    बेसुरे लगते हैं स्वर लगें

    मगर कहेंगे वे अपने को चिंघाड़

    जलती माटी मस्तक पर उछाल

    नहीं बँधेंगे झंझावेग के आजानु हाथ

    फूलों के नाज़ुक ठाँव

    इस जंगल के बीहड़ पहाड़ों पर पाँव धर

    उनको धसकता धमकाता

    जो बढ़ता हुआ बढ़ेगा चढ़ेगा

    किन हल्की फुल्की रंगीन कविता के गोहन लगाऊँ

    आख़िर मेरा कहना गाँव नगर खरभर बने

    अपनी चौकसी में हर खुरकन पर भौंक उठे

    कर्कश फूहड़ ही सही

    सब जागेंगे तो चोर डाकुओं के ख़िलाफ़

    दंभी हुंकार-सी ऊँची मीनार

    अपनी धड़कनों पर लिए

    मैं गाय हूँ कविता के पास

    ले आने फ़ौलादी आँधी

    जो मेरे भीतर से मुझे उखाड़

    बीच चौराहे ला गाड़ दे

    मार्च में एक साथ उठे असंख्य भाव

    ठोकर दे मुझसे अपनी राह करें

    और रख जाएँ यात्रा भविष्य की फलदार।

    भाषा ने बहुत छिपाया है मनुष्य को

    उसी को उघाड़ने बार-बार

    कविता का द्वार खटखटाया है

    कि खोल दे छिपे हुए आदमी का दर्प

    उगल दे विस्फोट में

    क़िलाबंद उसका ढोंगी तत्त्व—

    कविता भाषा की ज्वालामुखी विवर

    वहाँ दबे धँसे जंगल के जंगल दर्द

    लावा बन उबल पड़ें

    भले बने उससे कोई शिल्पित सुघर पर्वत

    दिखे वहाँ भले बिखरा अनगढ़ सब

    सब कुछ छितराती बिखराती

    सुन पड़ती वह आँधी दिगंत से दिगंत तक

    चूमती धरती का बदन

    मथती आकाश—

    सूरज का नयन पिघला रहा

    अँधियाए अन्हराए मन पर

    उस मीनार पर लटके जो घोंसले

    लगते चंगेज़ ख़ाँ की दाढ़ी हैं

    गुंबद पर हिटलर का टोप है

    नक़्क़ाशी में बेगमों की साड़ी है

    सोने और चाँदी का पानी है—

    नहीं होगी मेरी कविता

    बैठ उसकी छाँहों में—

    बहुत झेला इस अँधेरे को

    नहीं बनूँगा कोई दीप अकेला

    ख़ुद में बुझ जाने को

    वह जो है आने को उसको बुलाने को

    थमा दूँ हर हाथ को जगमग मशालें

    क्या करूँगा कोई ताजमहल

    हत्यारी यादें... उफ्...

    सुअरबाड़ों की हक़ीक़त

    मेरी कविता कैसे छलाँगे

    जहाँ हटा जाता वक़्त घें टें टे करता हुआ

    घेंटे-सा बो रहा पीड़ा की बिजलियाँ हवा में।

    मरणांतक छटपटाहटों को

    नहीं सुला पाएगा

    मलयानिल का स्पर्श

    बेला चमेली के शंखों की महक ध्वनि

    स्याह पड़े फोड़ा दर फोड़ा का

    कज्जर हाथी

    हर पूर्व नैतिक अंकुश की दिशा छोड़

    रौंदते फूल और कलियों के

    नाज़ुक ख़यालों को।

    इतना जब्बर उत्पीड़न चुटकी भर

    दया को भीखों में बाँध

    कब तक सूरज को दिया दिखाऊँगा?

    एक दग्ध विज्ञान सुलग जाता है

    सूखे संस्कारों के अंधे विश्वासों में

    खेत और खदानों में स्याह पड़ी देह में

    मेहनत की भूखी-प्यासी-जागरूक चेतना

    निजता की बंदिशें तोड़

    दौड़ी दिगंत से आँधी के दंगल में

    साँसें आज़माने उस कविता के पास

    जो बूढ़ी भाषा से उखाड़ेगी

    शब्दों में छिपाए हुए पुरखों के ख़ूनी दाँत

    फँसे जिसमें दिखते थे

    ताजमहल के कारीगरों के हाथ

    “इस अँधेरी गर्भकारा से

    जन्म लेते कृष्णावतार को लिए

    भगा जाता हूँ

    उफनाई विफलताओं को थाहता

    द्वंद्वों के नंदगाँव...”

    अनुभव संसार की चिंघाड़ों को

    सौंपने गया हूँ मैं आँधी के पाँव

    कि उसे भी कर लें तैनात अपने युद्ध के मैदान

    कि वह भी टेक दे अपने गजदंत

    पुख़्ता मीनार पर—

    जिसके ख़िलाफ़ बढ़ता रहा

    छैनी-हथौड़ों की चोटों का झंझावात

    मुझे नहीं मिलती कविता मिठाई की तरह

    दोस्त की बारात में

    मैं ही गया हूँ उसके पास

    फटेहाल भूखा-प्यासा

    खेत से लौटा मजूर जैसे जाता है

    टुकड़ा भर सूखी रोटी के पास...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 71)
    • संपादक : जीवन सिंह, केशव तिवारी
    • रचनाकार : मानबहादुर सिंह
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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