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कविता

kawita

जितेंद्र कुमार

और अधिकजितेंद्र कुमार

    मैंने काव्य-रचना को सुख का साधन समझा था

    मैंने अपनाव को समझा वितृष्णा में

    जैसे साहचर्य मैंने जाना एकांत में

    मैं भी हूँ पुरुष

    मानव-आकांक्षाओं के मुझ पर भी हुए हैं अनेकों वार

    पर स्त्री-सुख जाना मैंने

    उसके अभाव में

    हृदय के चिथड़े हुए टुकड़ों को जब मैंने काव्य-सा सँजोया

    मुझे लगा

    पहिन लिया है मैंने अपना ही हृदय आस्तीन पर

    और एक रेखा तब मैंने

    कविता के आर-पार खींच दी

    जो एक शहतीर-सी मेरे हृदय को चीरती निकल गई

    मैंने फिर भी काव्य-रचना को

    सुख का साधन समझा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आईने में चेहरा (पृष्ठ 76)
    • रचनाकार : जितेंद्र कुमार
    • प्रकाशन : जयश्री प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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