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कवि का बयान

kawi ka byan

जावेद आलम ख़ान

जावेद आलम ख़ान

कवि का बयान

जावेद आलम ख़ान

और अधिकजावेद आलम ख़ान

    हतकांत नर्तकी के क्षत नूपुरों से

    आहत पगों का अंतराल चीन्हता समय हूँ मैं

    मृदभाँड-सी काया वाली गणिका की मृदु स्मित में

    रूपजीविता अहंकार और लास्य का प्रस्फोट हूँ मैं

    रक्तप्रभ सांध्य गगन से तमस के सागर में

    समाधि लेता आज का जनवाद हूँ मैं

    उजले कपोत के सजल चक्षुओं में झाँकता

    मूक संवाद हूँ मैं

    मनुष्यता के घावों से रिसते मवाद पर रखे

    उम्मीदों के फाहों में मैं ही हूँ

    स्वर्ग की अमर विलासिता को ठोकर लगाने वाली

    क्रोधित मुनि की उद्दंड खड़ाऊ-सी

    तलवों को ज़मीन से दो इंच ऊपर रखती

    प्रगतिशील परंपरा की निगाहों में मैं ही हूँ

    मृग नाभि के स्पर्श से सुगंधित वायु में उड़ते

    कस्तूरी कणों में प्रस्रत अप्सरा की आहों में मैं ही हूँ

    प्रस्तर खंड पर अंकित

    सभ्यताओं की दास्तान का

    पहला शब्द मैंने ही दिया

    युद्ध की दुंदुभी में नकार का भाव लिए

    अवांछित मृत्यु का उद्घोष मैंने ही किया

    क्षत्रियों को अठारह वर्ष जीने की ललकार सुनाने वाला

    अभिशाप भी मैंने ही जिया

    वासुकी की कुंडली में फँसा पर्वत

    मेरी छाती कुचलता है

    मेरे मस्तिष्क में रोज़ होता है समुद्र मंथन

    मेरी अकर्मण्य देह में लपलपाती जिह्वा में

    घुले हैं अमृत और हलाहल

    हे कालचक्र! अपनी परिभाषा को सुधारो

    मेरे विषय में पुनः सोचो

    पुनः विचारो

    मेरी ख़ूबियों को समझो

    सीमाओं को स्वीकारो

    इतिहासविदों मुझे मात्र कवि पुकारो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : जावेद आलम ख़ान
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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