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कविता व्यक्तिगत विद्रोह है

kavita vyaktigat vidroh hai

हिमांशु जमदग्नि

हिमांशु जमदग्नि

कविता व्यक्तिगत विद्रोह है

हिमांशु जमदग्नि

और अधिकहिमांशु जमदग्नि

    मेरी कविताएँ व्यक्तिगत विद्रोह हैं

    उन लोगों का

    जो जन्म पूर्व से अब तक

    एक ही प्रतिस्पर्धा जीत पाए

    मेरी कविताएँ अलंकार हैं

    उन बाप बेटों के

    जो एक-दूजे की उतरन पहनते आए

    मेरी कविताएँ भूख है उन घरो की

    जो ख़ुद को चूल्हे में दे चूल्हे जलाते आए

    मैं इन्हीं कविताओं की पंक्तियाँ

    चुगा करता हूँ

    त्रास से नहाए डस्टबिनों से,

    चंद महीनों में

    यहाँ से सफ़ाई कर्मी ऐसे भागे

    गोया अफ़गान से भागे

    आज़ाद ख़्याल

    औरतों के पास कभी नहीं लौटे

    तालिबानियों की तरह हमने भी

    वो नहीं खोजे

    सब जा चुके लेकिन मैं ठहरा हुआ हूँ

    जैसे कबाड़ ठहरता है मन‌में

    देश का चोर आम जन में

    खिड़कियाँ दीवारों में

    आँकड़े की मौत मारे गए

    हम अख़बारों में

    घास की चद्दर लपेट

    अँधेरे की बीड़ी सुलगाए

    सड़क पर बिखरी वोटों के

    कपड़ों से आग जलाए

    हाथ सेंक रहा हूँ

    जलती आग में एक-एक

    वोट फेंक रहा हूँ,

    बदन पर रम रहा हूँ

    किसानों का डर

    इस देश ने उसे इतना डराया

    वो नहीं चाहते

    उनके बेटे किसान बनें

    मैं भी उन्हीं किसान में से एक की

    सीने की उपज हूँ

    जिनकी फसलें और ज़मीनें

    मजबूरियाँ खा गई

    मैं हाथ सेंकते हुए‌

    चुप हूँ

    इतना चुप

    गोया दिन के बाद रात

    रात के बाद दिन

    साँप के आगे बजती बीन

    छात्र समक्ष फ़ीस बढ़ने का नोटिस

    कर्मचारियों से भरा ऑफिस

    बिकता हुआ विश्वविद्यालय

    कोनों में सिकुड़ता‌आलय

    ख़ामोश समकालीन कविता को

    धँसी छाती से दूध पिलाते हुए

    लोकतंत्र को देख रहा हूँ

    गोया गाँव की स्त्रियाँ देखती हैं पतियों को

    पति टोटे को

    टोटा मुझको और

    मैं लोकतंत्र को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हिमांशु जमदग्नि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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