कवि को नहीं सुनाई पड़ता जब तक वाणी का आह्वान,
नहीं जानता जब तक उससे प्रत्याशित है क्या बलिदान,
जीवन के झंझट-झगड़ों में उलझा रहता उसका ध्यान,
जग की लघु-लघु चिंताओं में डूबा रहता उसका प्राण।
उसकी पावन वीणा रहती पड़ी शिथिल, निश्चल, चुपचाप,
जड़, जड़तर, जड़तम तंद्रा में गड़ता जाता अपने आप।
सभी ओर से धरे रहती है उसको दुनिया निस्सार,
उसको अपना जीवन लगता एक निरर्थक, दुर्वह भार।
लेकिन एक बार सुन लेते हैं जब उसके विस्मित कान,
स्वर्गलोक से जो मिलता है उसको वाणी का वरदान,
वह कल्पना गगन मंडल में उड़ने को अकुलाता है,
सुप्त गरुड़ जैसे जाग्रत हो अपने पर फड़काता है।
जीवन के सब खेल-खिलौनों से वह लेता आँखें मोड़,
अपनी चाल चला जाता है दुनिया करती रहती शोर।
दुनिया की पूजित प्रतिमाओ को देता वह ठोकर मार,
किसी जगह पर शीश झुकाना उसको होता अस्वीकार।
पर्वत की चोटी-सा होता उसका गर्वित उन्नत भाल,
उसकी गति में विद्युत होती, होता पैरी में भूचाल।
उसके स्वर के अंदर होता अबुधि का गर्जन गभीर,
झंझा का आवेग, प्रवाहित होता जो घन कानन चीर।
- पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 1964
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