ज़बान ज़हर है, बात क़त्ल है इसकी
zaban zahr hai, baat qatl hai iski
ग़ुलाम नबी नाज़िर
Ghulam Nabi Nazir
ज़बान ज़हर है, बात क़त्ल है इसकी
zaban zahr hai, baat qatl hai iski
Ghulam Nabi Nazir
ग़ुलाम नबी नाज़िर
और अधिकग़ुलाम नबी नाज़िर
यह क्या हुआ है इसे?
तारों को इसने भर दिया अपने झोले में
चबा डाला है चाँद को
और अब घात में बैठा है सूरज की
हवा को दियासलाई दिखा दी है
शून्य-अंतरिक्ष में दाँत गड़ाए हैं
मुँह के कानों से इसके
टपकता है ख़ून
इसकी आँखों का स्नेह
धधकती दो लपटों को समर्पित है
शहर में यह
अंगारे फूँकता चलता है
गाँव में
रात के सायों को
बारूद से भरकर उड़ा देता है
फैल जाती है जिसकी तेज़ दुर्गंध
सब ओर
भरी दोपहरी में
रूपहली पत्ती-से चमकीले चेहरे पर
कालिख की लकीरें पोतता है
आग लगाता है जलाशयों में
दहकाता है चिनारों की छाँव को
गले से मुँह लगाकर
पी जाता है ख़ून फूलों का
गंगा को रस्सियों से जकड़ लेता है
बितस्ता को बंद कर देता है पिंजरे में
दियों को उठा ले भागता है
छिपाकर अपने कपड़ों तले
ज़बान खींच लेता है बुलबुलों की,
तितलियों के पंख काट डालता है
पगला गया है अंगारे खाकर
आँखें इसकी धुआँ-धुआँ हैं
ज़बान ज़हर है
बात क़त्ल है इसकी
रोम-रोम बग़ावत
हाथ ख़ून के हस्ताक्षर
(स्नेहमयी धरती ही तो माँ है इसकी
पिता आकाश से भी ऊँचा
अनिकेत
फिर किसने सवार कर दिया है इस घोड़े पर इसे?)
अभी तो प्रारंभ है
ऐसा न हो यह भटकते ही चला जाए
ढाहता ही चला जाए अपने हाथों से
दीवारों को पत्थर-पत्थर
ऊँची अट्टालिका की भव्यता को
भूमिसात् कर दे चुटकी में
पगड़ी को गिरा दे मिट्टी में
अभी तो प्रारंभ है
बाद में कौन क्या कर सकेगा?
- पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 71)
- संपादक : बालस्वरूप राही
- रचनाकार : ग़ुलाम नबी नाज़िर
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1984
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