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कापालिक

kapalik

प्रभाकर माचवे

और अधिकप्रभाकर माचवे

    कापालिक हँसता है।

    पगले तू क्यों उस में फँसता है? रे दुनियादारी!

    यह महीन मलमल की सारी

    उसके नीचे नरम गुलाबी चोली से ये कसे हुए

    पीनोन्नत स्तन

    यह कुंकुम-अक्षत से चर्चित माथा, यह तन

    किसी सुहागिन की अर्थी पर

    बड़ी-बड़ी चीलों के मानो तीक्ष्ण चक्षु ये बसे हुए पर,

    जीवन याँ सस्ता है

    मरना यहाँ नहीं डँसता है

    कापालिक हँसता है।

    मरघट

    औघड़ का मठ

    चट-चट-खट-खट जलती हड्डी-मज्जा, झटपट

    कुत्ते भौंक रहे हैं, हो-हो—

    स्यारों की यकसाँ चिल्लाहट, छीन, औ' झपट!

    नदी किनारा

    डूब रहा सायं-तारा

    चीख किसी पंछी की चीं-चीं

    जिसके अंडों और घोंसले पर भूखे-से

    किसी बाज़ ने छापा मारा।

    क्या यों इकटक देख रहे हो

    सुंदर सत्य तुम्हारा, वैसा

    यही असुंदर सत्य हमारा।

    परवशता है।

    और नदी की धारा में भी, लो कृशता है,

    मोह-छोह हमको ग्रसता है

    कापालिक हँसता है।

    यही प्यार की नाटक-भाषा

    यही दिलजलों का तमाशा!

    मरी सुहागिन, दो दिन बीते

    त्यों ही नए ब्याह की आशा?

    पंछी चीं-चीं कर थकने पर

    पुनः नया तरु

    नया-नया घर, नवीन कोटर

    यही तुम्हारी प्रामाणिकता?

    जिसका अर्थ क्षणिकता।

    सिकता-सिकता केवल सिकता

    किसने पाया है रे ‘जीवन’?

    वह तो ‘पारा'।

    यहाँ आज सब कुछ है बिकता

    हृदय और ईमान, देवता!

    सब ममता की यहाँ दिखावट

    शून्य, खोखली और बनावट।

    सभी स्वार्थमय यहाँ बुलाहट,

    किसने पाई सच्ची आहट...

    किसने जाना वह रस्ता है

    किसने पाया वह रस्ता है

    कापालिक केवल हँसता है

    अट्टहास करता है, आँखें लाल-लाल

    चहुँ ओर डाल

    हँसता है

    कापालिक केवल हँसता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 134)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : प्रभाकर माचवे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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