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काँटों से बिंधी काया कौन चाहता है भला इस दुनिया में

लेकिन चाहतों-अचाहतों का फ़र्क़ कहाँ पड़ता है जीवन पर

वह तो अपनी मस्तानी चाल से चलता चला जाता है

बुझते-बुझते समूची आभा के साथ कभी जल उठता है

तो दौड़ते-दौड़ते अचानक ही कभी थम जाता है

अवांछित से लगते-दीखते काँटे हैं ये

तीक्ष्ण अंदाज़ कड़वे स्वाद वाले

पूरी देह से लिपटे-चिपटे

अपनी हरी-भरी डालियों के जीवंत हिस्से हैं

अमूमन दूरी से ये सिहरन पैदा करते हैं

एक चुभन-सी होने लगती है मन-मस्तिष्क में

हर क्षण मुस्तैदी से जुटे रहते हैं ये

अपने फूलों फलों और टहनी की हिफ़ाज़त के लिए

अपनी डाली से अलग हो जाते हैं फूल खिलकर

अपने शाख़ से टपक जाते हैं फल पक कर

लेकिन ये काँटे हैं

जो ताज़िंदगी बने रहते हैं अपनी टहनी के साथ

ज़िम्मेदारी उठाए चलते हैं ये दुनिया की

जैसे इसी के लिए रचा-गढ़ा गया हो इन्हें ख़ास तौर पर

इन्हें देखने के लिए जाना पड़ेगा

बेर, बबूल, मकोय, सीरफल, जंगल-जलेबी, बोगेनबेलिया से लेकर कैक्टस प्रजाति के देश तलक

किसान अक्सर रोप देते हैं इन्हें अपने खेतों की मेड़ों पर

और इनके भरोसे ही छोड़ देते हैं अपनी फ़सलें

देह ही नहीं मन तक को बचाने में क़रीने से लगे रहते हैं रात-दिन

दानों के गोटाने में इन काँटों की मौन-भूमिका है

जो अलक्षित ही रहता आया हर आँख से हर ज़माने में

तो भला कोई कवि इन पर कविता क्यों लिखे

जाननी है काँटे की अहमियत तो पूछो कभी साही से

जिससे ज़्यादा कोई समझ नहीं सकता है काँटों के मतलब को

अपनी पीठ पर सजा लेती है वह इन्हें

और इतराती फिरती है बाग़-बगीचे में

दुनिया-जहान में बेफ़िक्री से

काँटे हैं ये

असीमित विस्तार में फूले गुब्बारों की

पूरी हवा निकाल देते हैं क्षण भर में ही

काँटे हैं ये

हर किसी का कड़ा इम्तिहान लेते हैं

बेख़ौफ़ होकर चलने की छूट नहीं देते कभी किसी को

बल्कि देखकर चलने की तहजीब सिखाते हैं

मुश्किलों से हर संभव बचना सिखाते हैं

हमारे ही वंशक्रम में आने वाले

उपेक्षित जीवन जीने वाले इन काँटों से

ख़ून के रिश्ते आज भी क़ायम है

तभी तो चुभा नहीं कहीं देह में

कि छलछला आती हैं फ़ौरन ही ख़ून की बूँदे

हमारी इसी धरती

हमारे इसी लोक की सृष्टि हैं ये

काँटे ही काँटे हैं ये

जिन्हें काट नहीं पाया कोई हँसिया

जिन्हें उन्मूलित नहीं कर पाई कोई खुरपी कोई कुदाल

आरामगाह नहीं ज़िंदगी के टेढ़े-मेढ़े रण हैं

जीने के कठिनतम प्रण हैं

अभावों में पले-बढ़े और

अभावों में ही रहने-जीने के आदी

नहीं जानते क्या अधिक क्या कम है

काँटों से समूचा भरा हुआ

यह भी एक जीवन है

स्रोत :
  • रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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