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कल्पना विलासी

kalpana wilasi

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

शरत कुमार कर

शरत कुमार कर

कल्पना विलासी

शरत कुमार कर

और अधिकशरत कुमार कर

    एक

    प्रणय एक आईना

    स्वच्छ, निर्मल प्रतिबिम्ब के

    प्रतिफल हेतु अद्भुत

    काँच का पर्दा।

    ज़रा चटक जाए

    टूटना शुरू कर दे

    किरच-किरच बिखर जाए

    जोड़ना संभव नहीं

    टूटे आईने को

    टूटे प्रणय को।

    फिर भी वह खंडित,

    भंगुर

    टूटे काँच के टुकड़े

    दिख जाते चेहरे पर

    कुछ-कुछ अंश

    क्षत-विक्षत,

    विकृत

    संक्षिप्त, सीमित हो जाते

    प्रतिबिम्ब हो जाता बिम्बित

    प्रतिफलित होता कुछ अंश।

    दो

    प्रताड़ित, पराजित

    फिर भी प्रणय का अस्तित्व

    दृश्य होने-सा

    उझक कर देखता कुछ-कुछ

    ऊँघ गई नींद के झोंके से

    चौंक उठने की तरह

    चौंक जाता मैं

    पिछले दिनों के टूटे प्रणय की

    टूटी-टूटी छाया देख।

    सच, मैं प्रणयी था कभी

    अनेक प्रेमी युगलों की तरह।

    था शायद, किन्तु

    एकदम विपरीत रीति, नीति का।

    'प्रणयिनी' थी गौण,

    'प्रणय' था मुख्य।

    'प्रणय' परिचिता साथी सहचरी

    'नायिका' का परिचय भूल गया।

    आईने में स्वयं को देखने की

    बारंबार आकांक्षा शौक़-सी

    'प्रणय' को देखता रहा बार-बार

    अपने अतीत में।

    ‘प्रणय' ही थी मेरी प्रिया

    एक मात्र प्रणयिनी

    मैं उसका प्रेमी प्रवर।

    समय सैकत पर चलते-चलते कुरेदता

    विगत दिनों की स्मृतियाँ

    टूटे आईने की।

    विछिन्न घटनाओं का

    अविच्छिन्न ऐक्य स्वर।

    एक फ़्रेम में बँधे

    टूटे फ़ोटो, काँच के पर्दे में

    प्रतिबिम्बित प्रणय

    टूटे आईने के।

    मानस राज का पथिक

    चढ़कर भावना के पथ पर

    अतीत हृदय की गाथा

    गाता बार-बार

    ‘वर्तमान' में वही

    दरदी सहचर

    कल्पना विलासी के लिए

    अभंग कहानी

    भंग प्रणय उसका।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 164)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : शरत कुमार कर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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