कला के पेचीदा सवालों से टकराता एक आदमी
kala ke pechida sawalon se takrata ek adami
विमल कुमार
Vimal Kumar
कला के पेचीदा सवालों से टकराता एक आदमी
kala ke pechida sawalon se takrata ek adami
Vimal Kumar
विमल कुमार
और अधिकविमल कुमार
इस कड़ी धूप में एक आदमी
धूल उड़ाता पेड़ों के नीचे से होता कहीं चला जा रहा
है, इस समय उसे चिंता है
कला की रक्षा कैसे हो
कैसे उसे बनैले पशुओं से बचाया जाए
वह जीवन के बारे में दार्शनिक और ग़ैर दार्शनिक ढंग से
सोचता-विचारता
आसमान पर उमंग की कोई लकीर खोजता
कला के भीतर झाँक रहा है
उसका जनाधार क्या है
उसे भूख लगी है और वह अपनी जेब से निकालकर कुछ खा रहा
है, उसे चारों तरफ़ औरतें और बच्चे भागते दिखाई दे रहे हैं
कहीं कोई भयंकर आग लगी है
धुआँ फैलता जा रहा है
वह देख रहा कितना ख़ून बह रहा
पसीना चू रहा
आदमी की अभिव्यक्ति में
कला लोगों से छीनी जा रही
वह अपना खोया हुआ बचपन याद कर रहा है
वह मैली-कुचली क़मीज़ पहने धूल उड़ाता पाँवों में घाव कर गया है
बालों में घी की तरह तेल डाले
पहाड़ों की ओर निकल गया है
स्वतंत्रता की गौरवशाली संरचना तलाशने
वह देख रहा नीचे घाटियों में
एक बूढ़ा खाँस रहा अपने जर्जर घर में
वह मरने ही वाला है अब कला के निकट
उसके शरीर से मांस काटा जा रहा जिसे
बाज़ार में बेचा जाएगा, उस पैसे से शराब ख़रीदी जाएगी
वह शराब और कला के अंत:संबंधों पर ग़ौर करता
वहाँ से निकल गया है
दु:खी मन से
अब वह रास्ते में एक पत्थर पर बैठ गया है थका-हारा
तब से कला के अवयवों के बारे में सोचते हुए
घूम रहा है यहाँ से वहाँ धूल उड़ाता
मनुष्य के इतिहास में
- पुस्तक : सपने में एक औरत से बातचीत (पृष्ठ 111)
- रचनाकार : विमल कुमार
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 1992
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