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कहाँ हैं वे स्त्रियाँ

kahan hain we striyan

मोहन कुमार डहेरिया

मोहन कुमार डहेरिया

कहाँ हैं वे स्त्रियाँ

मोहन कुमार डहेरिया

और अधिकमोहन कुमार डहेरिया

    कहाँ रहती हैं वे स्त्रियाँ

    क्या कोई बता सकता है उनका पता

    जो जब मैं ले आऊँ किसी ग़रीब कुंजड़े वाले से

    दाग़दार फल, बासी सब्ज़ियाँ

    तो हँस पड़े खिलखिलाकर

    बिखेरते हुए मनुष्यता के एक नए तारे का प्रकाश

    लग जाए जब शब्दों की समाधि

    निकाल ले मेरे हाथों की ऊँगलियों से जलती हुई सिगरेट

    निकाल लेती है जैसे कोई माँ गहरे कौशल से

    नींद में किसी शरारती बच्चे के कानों का कंकड़

    सुना तो है

    हर देश में रही है ऐसी स्त्रियों की क्षीण-सी परंपरा

    दंतकथाओं में मिलता उनका ज़िक्र

    याद रहा ऐसी एक स्त्री का क़िस्सा

    सुहागरात के समय जब गहरी उत्तेजना में थी उसकी देह

    पड़ गया उसके पति को मिर्गी का भीषण दौरा

    मिट्टी के तेल में जलते साँप-से ऐंठने लगे शरीर के अंग

    कट गई दाँतों के बीच आकर जीभ

    झेल लिया था तब उस स्त्री ने हथेलियों की ओक में

    पति के मुँह से निकलता हुआ झाग

    और भर दिया था

    उसके सारे शरीर को चुंबनों से इस क़दर

    निस्तेज हो गया उस पुरुष के अंदर प्रवाहित होता बीमारी का विद्युत करंट

    टेढ़े होते उसके मुँह से निकलने लगीं

    उत्तेजना और आंनद की सिसकारियाँ

    ज़ाहिर है

    जब मैं कर रहा ऐसी स्त्रियों की बात

    मौजूद होगी ही ऐसे ही पुरुषों की भी परंपरा

    समझे मुझे पितृसत्तात्मक समाज का पक्षधर

    स्त्रीवादी विमर्शकार

    मैं पूछना चाहूँगा

    क्या पाई जाती हैं अब भी ऐसी स्त्रियाँ

    लिख रहा होऊँ जब मैं कविता, बनाता चित्र

    छुड़ा ले मेरे हाथों से घटिया शराब

    थमा दें बढ़िया ब्रांड की बोतल

    और कहें पियो कभी-कभार ख़ूब पियो

    तुम्हारे हर पैग पर कठघरे में खड़े हो रहे न्यायाधीश

    हर अनर्गल, अस्पष्ट बुदबुदाहट को

    स्पष्टता और गहरे औचित्य से सुन रहे विवेकवान लोग

    रही तुम्हारे स्वास्थ्य के चौपट होने की बात

    देखती हूँ मेरे प्रेम की नाल से जुड़ने के बाद भी

    कैसे क्षतिग्रस्त करता है तुम्हारे लिवर और हृदय को दुनिया का कोई भी अल्कोहल

    जब दीवानी हों सोने-चाँदी के गहनों की जब सारी स्त्रियाँ

    मुझे सचमुच तलाश है ऐसी स्त्री की

    जो जीवन के बड़े सरोकारों को ही धारण कर ले आभूषण की तरह

    इत्र-सा छिड़क ले अपने कपड़ों पर

    मेरी आत्मा से निकलती मनुष्यता की सुगंध को

    कहे फिर हो मदहोश गले में डालकर बाँहें

    गुलाब, मोगरा, गुलदाऊदी

    सबसे सुंदर फूल हो तुम मेरे इस पृथ्वी के

    वर्षों हो गए मुझे अकेले रहते

    अब मैं किसी स्त्री साथ जीवन गुज़ारना चाहता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन कुमार डहेरिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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