“वसुधैव कुटम्बकम्” की
स्वर्ण लफ़्फ़ाज़ियों के ठीक पड़ोस में
पान्नी भंगिन की सूजी देह का
भयानक अनुभव इस मुल्क के
माथे पर लगे हिमालय जैसे
प्रश्नचिह्नाें के जवाब
कहाँ जाते रहे, कॉमरेड?
भट्टों, खेतों और झुग्गियों के
इस विशाल चक्रव्यूह वाले
भारत में बिना सम्मान के
खटते हुए लोगों की आँखों में
भर आए दर्द का विज्ञान
क्या 'दास कैपिटल' नहीं हो सकता, कॉमरेड?
उदारवाद के बाद फ़ासीवाद के जाँघिए पहनकर
आदमी की शक्ल के दमनकारी पहिए
संसद से सड़क तक
थानों से तहसील तक
शहर से गाँव तक
हमारी क़िस्मतों को कुचलने में
धड़ल्ले से धड़धड़ाते रहे
और यह भी तो झूठ नहीं कि
उसी अपसंस्कृति के आचार्य
और न्यायाधीश मनुष्यता के मुखड़े पर
'चमक' कहकर पोती गई
बदबूदार कीचड़ के तमाम स्रोतों की
ख़बर रखते हुए भी उनके विरुद्ध
कार्रवाई करने से इंकार करने का
दर्शन रचते रहे।
कॉमरेड, कहीं इन दो हत्यारों के
ही बीच में से चुनाव की बात में
तुम्हारी अपनी सुविधा की बात
तो शामिल नहीं थीं? वरना,
यह तो पहले भी जग-ज़ाहिर था
कि क्रांति के पथ में खड़ी
सबसे कठोर दीवारें हैं—जातियाँ
जिन पर यह समाज शासन करता है
और जिस शासन के प्रणेता हैं
यहाँ के बिस्वेदार और धनाढ्य
जो न जाने कबसे इस राष्ट्र की
कमर पर अपने खखारों की
बरसात को कभी ‘मुख्यधारा’
तो कभी ‘धर्म’ कहते आए हैं।
कॉमरेड, इनके विरुद्ध युद्ध
जो बहुत पहले शुरू होना था—
नहीं हुआ, कहाँ गया युद्ध?
और आप, क्या इतना भी
नहीं समझते कि जब तक
बिस्वेदारों के आकाश को
समतल बनाने वाली बातें
बहानों की लाठियों से
पीटी जाती रहेंगी तब तक
हिंदुत्व का 'सूक्ति विलास' और
पश्चिम छाप की कोई भी ‘क्रांति'
किताबों से उठकर किताबों में ही
ढेर होती रहेगी।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 85)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : जयप्रकाश लीलवान
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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