पेट पर धरे हुए अपने मालिक के पाँव
जूते धरती पर पीठ के बल चलते हैं
दुर्गम यात्राओं की धूल पीने के बाद भी
जूतों के थकने का नहीं है कोई इतिहास
जूतों की भी अपनी हैसियत होती है
धन्नासेठों के जूते
कीचड़-धूल सने खेतिहर-मजूरों के जूतों पर
डालते हैं हिक़ारत भरी निगाह
जूतों को कभी चमड़े का कहा गया
कभी कैनवस, रैगज़ीन या कपड़े का
लेकिन नाम के फेर में न पड़ते हुए
जूतों ने रचे बीहड़ों-पहाड़ों पर भी
गलियों-पगडंडियों के निशान
जूतों को गालियों में इस्तेमाल किया गया
सिक्के चलने के तर्ज़ पर कहा गया चलते हैं फलाँ के जूते
संसदों-विधानसभाओं में फेंका गया उन्हें
लेकिन जूतों ने खुद अपने लिए नहीं चाहा कभी कुछ
जूतों के तीखे दाँत होते हैं
तानाशाह के पाँव जब रौंदने लगते हैं
खेत-खलिहान, बस्तियाँ-मैदान
पाँव में काट-काट कर जूते करने लगते हैं विद्रोह
जूतों के कई रंग हैं—नीला, सफ़ेद, लाल, काला
लेकिन मेहनत-कश पाँव के पसीने के रंग में
न्योछावर रहता है जूतों का तन-मन
फेंक दिया जाता है जूतों को जब
बदला लेने लगती हैं उनसे ठोकरों की चोटें
और वे काँटे भी निकालते हैं बैर
जिन्हें अपनी देह में झेलकर बचाए थे उन्होंने
आदमी के पाँव
जूतों की देह में रह गए कंकर-काँटे
टीसते रहते हैं जाड़ा-गरमी-बरसात
जूतों के इतिहास में इस पर नहीं है कहीं कोई असहमति
कि नए जूते के काटने का दरद
चलने वाला ही जानता है!
- रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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