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संघर्ष

sangharsh

अरुण देव

अरुण देव

संघर्ष

अरुण देव

और अधिकअरुण देव

    एक बड़ा परदा है काला

    उसमें छोटे-छोटे छेद हैं रौशनी फूट रही है

    चला जाता एक लंबा जुलूस है शोक में डूबा

    एक बच्चा पीछे मुड़-मुड़कर देखता है

    घनी रात है

    आकाश डूबा हुआ अपने ही अँधेरे में

    एक दिया जलने बुझने की संधि पर टिमटिमाता हुआ

    अपनी ही ज़िद पर अड़ा

    जलता हुआ

    कोई छोर नहीं बाढ़ अबकी उतर आई है मैदानों में

    पेड़ के फुनगी पर एक मेमना

    एक बच्चा पिता के कंधे पर बैठा है रखे अपने सिर पर पोटली

    एक डोलती बड़ी-सी टोकरी में

    एक मुर्ग़ी अपने सात आठ चूज़ों के साथ

    शव-गृह से अपने बच्चे का शव कंधे पर ले सीढ़ियाँ उतरता पिता

    थका जैसे कंधे टूट रहे हों उस फूल के भार से

    उसकी एक ऊँगली पकड़े आँखें पोछती उसकी बेटी

    नुकीले शीत में ख़ेत की रखवाली करते मजूर ने टीन का दरवाज़ा बंद कर लिया है

    पैरों के पास थोड़ी-सी आग बची है

    दंगे में जलते घर से निकल भागी जा रही वह लड़की

    उसके हाथ में दराँती है

    वह हवा को चीरती हुई निकल गई है

    युवा ने राजधानी में जगह तलाश ली है रहने के लिए

    पर जहाँ सूरज नहीं पहुँच पाता

    उसे मिल ही गया है कुछ पन्नों के अनुवाद का काम

    क्या तुम्हारी पराजय बड़ी है इनसे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण देव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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