नौकरी से मैं निकाला नहीं गया था
बल्कि बड़ी जतन से मैंने नौकरी की
आक़ाओं को ख़ुश रखने के लिए ग़ुलाम दासों की तरह सिर झुकाए
उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए न्याय-अन्याय के फ़र्क़ को मिटाते हुए
शायद मैंने नौकरी उस तरह से की जिस तरह मेरे पूर्वजों ने
अँग्रेज़ी हुकूमत के ज़माने में की होगी
उनको नौकरी करते देखा नहीं मैंने
लेकिन उनके नौकरी करने के
अंदाज़ से जगह-जगह आहों-कराहों की आवाज़ों और पुरानी
इमारतों पर चूक गए कोड़ों के निशानों
और लहूलुहान हुए दीवारों से महसूस होता है
अँग्रेज़ों ने भी ख़ूब हुकूमत की भारतीय महावतों वाले हाथियों से
भारतीय छातियों को कुचलवा दिया
मैंने नौकरी इसी तरह बड़े सलीक़े से की और महसूस करता रहा
जैसे मैं पागल हाथियों पर बैठा हुआ
आज़ाद हिंदुस्तान की छातियों को रौंद रहा हूँ
सिर्फ़ एक अदद नौकरी को बचाए रखने के लिए
छातियाँ रौंदते-रौंदते एक दिन मैं साठ साल का हो गया
मुझसे कहा गया कि अब आप सेवानिवृत्त हों
अब आपकी ज़रूरत नहीं
मैंने कहा कि मैं अब भी हाथियों की सवारी कर सकता हूँ
लेकिन शायद इन बातों को सुनने वाला कोई नहीं था
मैंने अपनी छाती पर हाथी के भारी-भरकम पैरों को महसूस किया
लोग पूछते हैं कि अब आप क्या कर रहे हैं
कुछ बताने के लिए है नहीं क्योंकि कविता लिखने को काम नहीं मानते लोग
लोगों से छुप कर मैं कविता लिखता हूँ
और नौकरी के दरमियान किए गए
अपने गुनाहों को याद करता हूँ
एक दिन हर नौकरी-पेशा यही करेगा।
- रचनाकार : मिथिलेश श्रीवास्तव
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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