जो बच्चे खेलते नहीं उनसे डर लगता
अपने चतुर मन में क्या-क्या साज़िश करते
जो खेलते नहीं बच्चे
उनकी आँखों में आगकाड़ियाँ
उनकी उँगलियों में उलझी
सूरज चाँद तारों की लगाम
जो खेलते नहीं खिलौनों से
मैदानों उपवनों में नज़र नहीं आते
कौन-सी गुफा कंदराओं में छिपे उनके मंसूबे
उनके नन्हे कूल्हों में बारूद के ढेर
जो खेलते नहीं बच्चे उनके क्या नाम हैं?
क्या उनको सब कुछ की इजाज़त है?
आईन क़ानून क्या सब इतने निकम्मे हैं?
जो खेल रहे हैं
उन्हें डर लगता है
क्योंकि बच्चे देख रहे हैं खेल।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 79)
- रचनाकार : सुदीप बॅनर्जी
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2005
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